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Very rarely, there have been days where I didn’t cry myself to sleep. My pillows, my bed, I reek of salt. I don’t know why I can’t just let go of your thoughts. One way or other they come back to me. Those thoughts bring pain and I feel I have had enough pain for this lifetime. But it doesn’t stop. Every night, the pain comes back. My heart tries to collapse in itself. My legs look for a floor that would help them stay stable. My hands try to find ways to subdue the pain. They pull the hair on my head, sometimes wrap themselves around me like a blanket, and sometimes hold a pen. But the pain never goes away. It soars higher and higher. And in that pain, I realise how much I have started hating you. I hate you for what you did. I hate you for not trying. I hate you for throwing me off like a mere baggage when you were done. I hate you for leaving me when I’m at my worst. I will always hate you for making me feel like an option. Tell me was it that hard? Was it that hard to make efforts for me?
// A Rant by A Broken Heart-
कंधे इश्क़ के बोझ से झुक चुके है
मिरे बोल ख्वाबों तलक मुक चुके है
लगी थी जिन्हें दहर थोड़ी सफ़र में
वही बे-ग़रज़ शल कदम रुक चुके है
क्यूँ बैठना इश्क़ के बाब पे मा
यहाँ जो थमे वो मुहिब फुक चुके है
मदीना कहूँ या किनारा-ए-काशी
सभी नामवर सर यहाँ झुक चुके है
‘तमस’ में रहे उम्र भर आस करते
मिले ना मिले वो नयन झुक चुके है-
मैं कभी ख़ुद का लिखा कह नहीं पाया। फिर जब तुम कविता जैसी जीवन में आयी तो लगा शायद तुम्हें कह दूँगा। कोशिश भी करी। सोचा तुमको तुम्हारे गालों के सहारे तुम्हारे बालों को तुम्हारे कान के पीछे रखते हुए थोड़ा सा अपने हाथों से चुराकर पन्नो पर उकेर दूँगा। पर ऐसा हुआ नहीं। इससे पहले कि तुम्हें पन्नो पे मैं रखता तुम मेरे हाथों से बंद मुट्ठी में छुपी रोशनी से भी जल्दी बिखर गयी। फिर मैं उसी जगह खड़े रहकर कभी अपनी हथेली तकता तो कभी अपने पैरों के नीचे से खिसकती ज़मीन को। जैसे जैसे मंजर बदले, भागती हवा में तैरते धूल के कणों से नए ज़ख्म बने। मैं खड़ा रहा और वो अंदर ही अंदर सड़ते रहे। मौसम की चाल से जब पहली बारिश में जो वो ज़ख्म जले, तब कदम मेरे मयखाने की ओर भग चले। घूँट पे घूँट, शीशी पर शीशी, चाभी मायकदो के तालों की हमारी जेबों में थी। पर फिर भी इस गम की ना प्यास बुझी, ना मेरी जुबान खुली। मौत से फूली आँखों को और बोझ से मुरझाते दिल को ढो कर चलते हुए जब मिटने के बादल सर पे मँडराये, तब हाथ मेरे कपकपाये। तो उँगलियों ने टकराने से बचने को कलम थामी। और हाथ ने जमने से बचने को कलम सहारे घिस दिया ख़ुद को कागज पे। पृष्ठ दर पृष्ठ, अक्षर ब अक्षर सारे घाव भर चले। पर अब उनको ना सुनने के लिए तुम थी ना ही सुनाने के मायने। शायद शायद इसीलिए मैं कभी ख़ुद का लिखा कह नहीं पाया।
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Healing is not easy. It’s a continuous process. I’m constantly battling one or the other thing. Sometimes the battle is with my thoughts. Sometimes it’s with me, and sometimes it’s with the world. I try to act brave and fight hard. The night feels peaceful when the battles are won, and dreams don’t wake me up. However, there are days when I lose. And in those seconds, everything that has slightly improved over time turns worse. And I turn into a carcass that can’t even be pitied. My chest stops taking oxygen and my heart implodes. My hands that have held me all this while, give up and I stare at the vastness of nothing. Hoping that this will pass.
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शायद तुम्हें फ़र्क़ पड़ेगा
ये सोचकर
मैं कुछ ना कुछ लिख देता हूँ
उल्टा-सीधा सही-ग़लत
सब भूलकर मैं
बस कुछ लिख देता हूँ
शायद ये नहीं तो वो–
मेरी नफ़रत, मेरी चाहत
मेरी बेबसी, मेरी लाचारी
मेरी उदासी, मेरा दर्द
कुछ तो तुम्हें मजबूर करेगा
किसी बात से तो फ़र्क़ पड़ेगा
पर फिर भी तुम नहीं आती
कुछ आता है तो वो है
तुम्हारी याद, तुम्हारी बेदिली
तुम्हारी नज़रअंदाज़ी तुम्हारी कमी
और मैं सिहर जाता हूँ
लोगों के पैरों तले ज़मीन खिसकती है
मेरे पैरों से जान निकलती है
और मैं जहाँ खड़ा होता हूँ
पल में वही बिखर जाता हूँ।
शायद इससे भी तुम्हें फ़र्क़ नहीं पड़ेगा
शायद यही अंजाम है मेरा
बर्बादी के शिखर पे पहुंचकर
थोड़ा और वीरान होना।-
So much to tell and yet
I can’t find the words
And even if I muster
A courage so profound
That lets me say word
To word whatever I feel.
A dilemma of not being
heard to heart’s content
Looms over the head.
I do ignore at times
the dilemma and its after effects
And take myself to the doors
Boulted not closed,
Only to return without a word
Being said in all the chaos.-
मैं कभी ख़ुद का लिखा कह नहीं पाया। फिर जब तुम कविता जैसी जीवन में आयी तो लगा शायद तुम्हें कह दूँगा। कोशिश भी करी। सोचा तुमको तुम्हारे गालों के सहारे तुम्हारे बालों को तुम्हारे कान के पीछे रखते हुए थोड़ा सा अपने हाथों से चुराकर पन्नो पर उकेर दूँगा। पर ऐसा हुआ नहीं। इससे पहले कि तुम्हें पन्नो पे मैं रखता तुम मेरे हाथों से बंद मुट्ठी में छुपी रोशनी से भी जल्दी बिखर गयी। फिर मैं उसी जगह खड़े रहकर कभी अपनी हथेली तकता तो कभी अपने पैरों के नीचे से खिसकती ज़मीन को। जैसे जैसे मंजर बदले, भागती हवा में तैरते धूल के कणों से नए ज़ख्म बने। मैं खड़ा रहा और वो अंदर ही अंदर सड़ते रहे। मौसम की चाल से जब पहली बारिश में जो वो ज़ख्म जले, तब कदम मेरे मयखाने की ओर भग चले। घूँट पे घूँट, शीशी पर शीशी, चाभी मायकदो के तालों की हमारी जेबों में थी। पर फिर भी इस गम की ना प्यास बुझी, ना मेरी जुबान खुली। मौत से फूली आँखों को और बोझ से मुरझाते दिल को ढो कर चलते हुए जब मिटने के बादल सर पे मँडराये, तब हाथ मेरे कपकपाये। तो उँगलियों ने टकराने से बचने को कलम थामी। और हाथ ने जमने से बचने को कलम सहारे घिस दिया ख़ुद को कागज पे। पृष्ठ दर पृष्ठ, अक्षर ब अक्षर सारे घाव भर चले। पर अब उनको ना सुनने के लिए तुम थी ना ही सुनाने के मायने। शायद शायद इसीलिए मैं कभी ख़ुद का लिखा कह नहीं पाया।-