अरुण खामख्वाह   (अरुण खामख्वाह)
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ऑलवेज खामख्वाह
Joined 6 April 2018


ऑलवेज खामख्वाह
Joined 6 April 2018

उसे नजर भर के देखना
और यूँ देखना
कि वो देखते ना हो
इश्क़ की नज़ाकत
का ये गहरापन
उफ़ तौबा..!

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सबसे खूबसूरत होता है
प्रेम की कल्पनाओं का हकीकत हो जाना

-



शब्द...!!!


कहाँ हो यार तुम..!
बहुत दिनों से मुलाकात नही हुई

दुःख, संत्रास, पीड़ा और क्लेश,
सुकून,खुशी,आनन्द और शांति
सभी तो आ रहे है,जा रहे है जीवन मे
लेकिन तुम्हारे बिना ये कैसे व्यक्त करूँ?

ऐसी भी क्या नाराजगी है
हमारा साथ तो बहुत पुराना है

जहाँ कही भी हो जल्दी लौट आओ
तुम्हारे बिना सब सूना सूना है

अभी तो बहुत कुछ सहना है
अभी तो बहुत कुछ कहना है.

    - अरुण खामख्वाह

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जिंदगी...!
बहुत से 'काश...!!'
से बचा कर जी हुई चीज़ है.
😐

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जिंदगी...!
बहुत से 'काश...!!'
से बचा कर जी हुई चीज़ है.
😐

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ना ग्रीन ना हर्बल
चाय तो बस
तुम्हारे जैसी हो
बादामी रंग की

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ना ग्रीन ना हर्बल
चाय तो बस
तुम्हारे जैसी हो
बादामी रंग की

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दीवारों के कान ही नही जुबाँ भी होती है..
मेरे कमरे की हर दीवार मुझे से बातें करती हैं..
पीछे की दीवार
जिस पर तकिया टेक कर बैठता हूँ हर शाम
जानती है दिन भर की थकान को
यह बन जाती है --
माँ ,बाप ,दोस्त, भाई,बहन ,बेटी,बेटा ..
और तुम्हारी बांहे...

दायी तरफ की ये दीवार ,
जिस पर टंगी है माँ की तस्वीर
इस दीवार की चिंता कभी खत्म नहीं होती
मैं लाख कोशिश कर लूं हंसने की
ये मेरा रोना पकड़ लेती है

बायीं तरफ की ये दीवार
जिस पर टंगी होती थी कभी तुम्हारी तस्वीर
बड़ी सूनी सूनी सी है
उतनी ही सूनी सूनी निगाहों से मुझे देखती रहती है
मैं अक्सर इस से लिपट कर रोता हूँ

और ये जो सामने की दीवार है --
जिस में एक दरवाज़ा है ,
जो उधर बाहर की दुनिया में खुलता है
जिस से बाहर जा के ,मैं खुद से बिछड़ जाता हूँ
बंट जाता हूँ -कई हिस्सों में

कोई इस दरवाज़े को बंद करता क्यों नहीं ?

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दीवारों के कान ही नही जुबाँ भी होती है..
मेरे कमरे की हर दीवार मुझे से बातें करती हैं..
पीछे की दीवार
जिस पर तकिया टेक कर बैठता हूँ हर शाम
जानती है दिन भर की थकान को
यह बन जाती है --
माँ ,बाप ,दोस्त, भाई,बहन ,बेटी,बेटा ..
और तुम्हारी बांहे...

दायी तरफ की ये दीवार ,
जिस पर टंगी है माँ की तस्वीर
इस दीवार की चिंता कभी खत्म नहीं होती
मैं लाख कोशिश कर लूं हंसने की
ये मेरा रोना पकड़ लेती है

बायीं तरफ की ये दीवार
जिस पर टंगी होती थी कभी तुम्हारी तस्वीर
बड़ी सूनी सूनी सी है
उतनी ही सूनी सूनी निगाहों से मुझे देखती रहती है
मैं अक्सर इस से लिपट कर रोता हूँ

और ये जो सामने की दीवार है --
जिस में एक दरवाज़ा है ,
जो उधर बाहर की दुनिया में खुलता है
जिस से बाहर जा के ,मैं खुद से बिछड़ जाता हूँ
बंट जाता हूँ -कई हिस्सों में

कोई इस दरवाज़े को बंद करता क्यों नहीं ?

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जब हम दूर नही रह पाते

तो करीब क्यों नही आते?

ये कैसा फासला है जो हम

चल कर भी पाट नही पाते

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