दीवारों के कान ही नही जुबाँ भी होती है..
मेरे कमरे की हर दीवार मुझे से बातें करती हैं..
पीछे की दीवार
जिस पर तकिया टेक कर बैठता हूँ हर शाम
जानती है दिन भर की थकान को
यह बन जाती है --
माँ ,बाप ,दोस्त, भाई,बहन ,बेटी,बेटा ..
और तुम्हारी बांहे...
दायी तरफ की ये दीवार ,
जिस पर टंगी है माँ की तस्वीर
इस दीवार की चिंता कभी खत्म नहीं होती
मैं लाख कोशिश कर लूं हंसने की
ये मेरा रोना पकड़ लेती है
बायीं तरफ की ये दीवार
जिस पर टंगी होती थी कभी तुम्हारी तस्वीर
बड़ी सूनी सूनी सी है
उतनी ही सूनी सूनी निगाहों से मुझे देखती रहती है
मैं अक्सर इस से लिपट कर रोता हूँ
और ये जो सामने की दीवार है --
जिस में एक दरवाज़ा है ,
जो उधर बाहर की दुनिया में खुलता है
जिस से बाहर जा के ,मैं खुद से बिछड़ जाता हूँ
बंट जाता हूँ -कई हिस्सों में
कोई इस दरवाज़े को बंद करता क्यों नहीं ?
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