"आज के परिवार"
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बिखर रहें हैं परिवार अदद छोटी सी बात पर,
अब सुलझते नही गुत्थियां अनुभवों के खाट पर,
आज के रिश्ते पनपने से पहले ही मिट्टी में मिल रहें हैं,
जिधर ही देखो उधर समाज के आशियाने जल रहें हैं,
जो कल थे घर के ताने बाने, आज बाज़ार में शर्मसार हैं,
समझ व कल्पना से भी परे लोगों के आज के व्यवहार हैं,
अपनत्व, समर्पण, स्नेह, त्याग, आत्मीयता सब त्यज कर,
अपने जड़ों में ही कुल्हाड़ी मार रहें हैं निर्लज्ज बेसुध हो कर,
यूँ ही चलन जारी रहा तो घरौंदों में बिखराव होगा,
ये हर आदमी के जिन्दगी पर गहरा घाव होगा,
अभी भी समय है स्वंय को सही पथ पर लाने का,
जो दरमियान बिखर रहा है उसे अपनत्व से सजाने का,
समय सब भर देगा जो अतीत ने ज़ख्म उकेरा है परिवार पर,
यह वही जगह है जहाँ जीत मिलती है अहम को हार कर।
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