21 MAR 2018 AT 23:15

खिड़कियों से झाँकती हसरतें
दरवाज़ों से बाहर निकलना भूल रही हैं,
मोबाइल के स्क्रीन पे सरकती उँगलियाँ
किताबों के पन्ने पलटना भूल रही हैं,
दौर ये कैसा आ गया देखो ---
कोशिशें लड़खड़ा कर सम्भलना भूल रही हैं।

- अरुण चौबे ‘प्रखर’