Arpita Singh   (Arpita)
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Joined 31 January 2019


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17 JAN 2022 AT 12:57

अपने किरदार को क्या खूब निभाते हो
मन की बात को जुबां तक भी नहीं लाते हो....

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4 JAN 2022 AT 22:25

तो हमे भी समझना
मंज़िल एक ही है,
कभी तुम भी ये बोल देना
ख्यालों की दुनिया में,
कुछ इस तरह खो गई हूं
हकीकत को भूल कर,
बाकी सब याद कर बैठी हूं!

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30 JUL 2020 AT 22:00

से सवाल कैसा
तुम तो चले गए
अब मेरा हक कैसा

हो खुशनसीब जो रोका नहीं हमने
खैर, पाके खो दिया ये समझा नहीं तुमने

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30 JUL 2020 AT 21:47

Myself







a new version of me

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29 JUL 2020 AT 20:30

to look back





to start a new journey

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28 JUL 2020 AT 22:10

तेरे ख्याल में डूबकर अक्सर कुछ लिखती हूं
मेरे सादगी को जरा समझो,
हर वक्त क्यों तुम्हारा ही जिक्र किया करती हूं

तेरे प्रेम में खोकर अक्सर कुछ याद करती हूं
सावन के महीनों में इन बूंदों की तरह गिरती हूं

इन पन्नों की शुक्रगुजार हूं,
अक्सर इनको अपना हाल-ए-दिल बताती हूं
इनका भी क्या कहना हर बार इन्हें ही तो सताती हूं

एहसास के पन्नों को यूं ही दबा देती हूं
अक्सर तुम्हें सोच कर मुस्कुरा दिया करती हूं
नहीं जताना प्यार मुझको क्यों यही मैं सोचती हूं,
ज्यादा तो नहीं पता पर शायद खुद से ही मैं डरती हूं

मेरे ख्यालों से तालुकात करके देखो
कभी तो मुझे याद करके देखो
वो मुलाकात भरे दिन को समेट कर देखो,
मेरी मुस्कुराहट का एक बार राज बनकर देखो

तेरे ख्यालों में रहती हूं ,
अक्सर किसी और को देखकर तुम्हें समझा करती हूं
चाय की प्याली और सावन का महीना
भीगा हो मौसम और संग तेरे हो जीना

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28 JUL 2020 AT 13:41

दिल को चैन कहां
जहां वो दिख जाए
मेरे दिल को सुकून वहां

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28 JUL 2020 AT 9:13

मैं करूंगी इंतजार तुम आना जरूर
अधूरे ख्वाब को पूरा करना जरूर
माना की दूरियां ज्यादा है
पर अपना नाता तो पुराना है

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27 JUL 2020 AT 21:49

लाल चुनरी,लाल बिंदी

(Read in caption ).....

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27 JUL 2020 AT 12:57

निराशा भरी आंखों में आशा अभी बाकी थी
किया मुश्किलों का सामना पर जंजीरों से तो वाकिफ थी

कोहरे की धुंध में परवरिश की मौहूम लिए बैठी थी
जख्म पर मरहम लगा गम से हठ कर बैठी थी

उगते सूरज की लाली पर लाल रंग सी हो गई
अपने खालीपन से लड़ते जमाने से दूर हो गई

ताक पर रख सपनों को परछाई बनने चल पड़ी
अपने ह्दय को शून्य कर आंसुओं को पी गई

सुबह का सूरज, रात का चांद, देखना मुनासिफ नहीं
कुरेद-कुरेद बदन को अपने सिसक-सिसक कर रह गई

दहा हृदय की अग्नि,बर्फ सी वो हो गई
देख दर्पण में अपने को मानो वो खुद को ही भूल गई

आशियाने के मंजर को यूं बिखरते देखा जिसने
मानो मिट्टी के घर को खुद तोड़ दिया हो उसने

पायलों की झंकार सुन,कुछ याद आ रहा है अब बस
सावन के झूलों पर नाराज हो रहा मन ये बस

गुड़ियों से खेलते,अब तो गुड़िया हो गई मैं
जिसने पाकर सब कुछ खोया वो शख्सियत हो गई मैं

अब यत्न मत करना तुम
अब जतन मत करना तुम
तोड़ दी ख्वाहिशें तुमने,अब पतन मत करना तुम

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