निराशा भरी आंखों में आशा अभी बाकी थी
किया मुश्किलों का सामना पर जंजीरों से तो वाकिफ थी
कोहरे की धुंध में परवरिश की मौहूम लिए बैठी थी
जख्म पर मरहम लगा गम से हठ कर बैठी थी
उगते सूरज की लाली पर लाल रंग सी हो गई
अपने खालीपन से लड़ते जमाने से दूर हो गई
ताक पर रख सपनों को परछाई बनने चल पड़ी
अपने ह्दय को शून्य कर आंसुओं को पी गई
सुबह का सूरज, रात का चांद, देखना मुनासिफ नहीं
कुरेद-कुरेद बदन को अपने सिसक-सिसक कर रह गई
दहा हृदय की अग्नि,बर्फ सी वो हो गई
देख दर्पण में अपने को मानो वो खुद को ही भूल गई
आशियाने के मंजर को यूं बिखरते देखा जिसने
मानो मिट्टी के घर को खुद तोड़ दिया हो उसने
पायलों की झंकार सुन,कुछ याद आ रहा है अब बस
सावन के झूलों पर नाराज हो रहा मन ये बस
गुड़ियों से खेलते,अब तो गुड़िया हो गई मैं
जिसने पाकर सब कुछ खोया वो शख्सियत हो गई मैं
अब यत्न मत करना तुम
अब जतन मत करना तुम
तोड़ दी ख्वाहिशें तुमने,अब पतन मत करना तुम
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