गुज़रने दो कुछ दिन बीते ख़यालातों में…
डूबने की भी एक शाम हो जज़्बातों में।
ज़ाया मत करो ज़िंदगी को उलझनों में
गुज़रने दो एक शाम यूहीं बातों बातों में।
ग़र हमसफ़र है लाजवाब कोई…
तो ले चलो इस शाम को; हँसी रातो में।
क्यों जलाते हो ख़ुद को यूँ दूर से देखकर…
तब्दील कर दो दीदार को मुलाक़ातों में।
अगर मजबूरी है आपकी तो और बात है…
मगर दूरी ना हो इन हँसी तालुक़ातों में।
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जिन पलकों में कभी वो बेटा बैठा करता था…
आज वहाँ दर्दों का सैलाब; बेशुमार बैठा था ।
कुछ दिन ग़रीबी के हैं; वो नज़रे चुराये था…
नज़रे मिलाये कब, आख़िरी इतवार बैठा था ।
चाह कर भी वो माँ खुलकर टूट भी ना सकी…
एक लाड़ला बेटा उसका बेरोज़गार बैठा था ।
पिता के अरमान थे कि एक रौब से रह सके
ढेरों सवाल लिए आज सारा संसार बैठा था ।
जब जब टूटा बिखरा वो हालातों से हार कर
भाई हौसला लिए सामने हर बार बैठा था ।
बहन की बातों ने ग़म से बचाया भी…
कहा एक दफ़ा तू समंदर तैर कर पार बैठा था ।
हमसफ़र की ख्वाइश, उसे खुश देखने की है
नादान बच्चे के दिल में हाट—बाज़ार बैठा था ।
वर्तमान की उथल-पुथल में भविष्य को लिए…
अंदर से टूटा वो शख़्स अकेला बेकार बैठा था ।
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कुछ ख्वायिश सी दबी है मन में
उसी को अलफ़ाज़ो में कह जाता हूँ मैं…
कोई समझे तो ठीक वरना
अलफ़ाज़ो तक ही रह जाता हूँ मैं।
कुछ कहानियाँ दबी है अंदर मेरे
हज़ारों क़िस्से समेटे रखे हैं मैंने…
यूँ तो हूँ पानी सा शीतल, सरल मैं
बस कभी पानी सा ही बह जाता हूँ मैं।
अपनी कल्पनाओं में झूमता रहता हूँ मैं
हर पल कुछ ना कुछ दूंढ़ता रहता हूँ मैं…
ज़िंदगी की तपिश में तपता हुआ
आख़िर में बस राख सा रह जाता हूँ मैं।
बुरा लगता है हर ग़म का घूँठ पीने में
दर्द दिल में भी रखता हूँ और सीने में…
वो और बात है लोग पत्थर समझते हैं
बस इसलिए ही हर दर्द सह जाता हूँ मैं।
कभी पानी सा बह जाता हूँ मैं…
कभी राख सा रह जाता हूँ मैं…
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तुम नयी विदेशी मिक्सी हो, मैं पत्थर का सिलबट्टा हूँ…
तुम ए.के सैंतालिस जैसी, मैं तो एक देसी कट्टा हूँ ।
तुम चतुर राबड़ी देवी सी, मैं भोला भाला लालू हूँ…
तुम मुक्त शेरनी जंगल की, मैं चिड़ियाघर का भालू हूँ ।
तुम व्यस्त सोनिया गांधी सी, मैं वी.पी सिंह सा ख़ाली हूँ…
तुम हँसी माधुरी दीक्षित की, मैं हवलदार की गाली हूँ ।
कल जेल अगर हो जाए तो, दिलवा देना तुम ‘बेल प्रिये…
मुश्किल है अपना मेल प्रिये, ये प्यार नहीं है खेल प्रिये ।
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आज बेटी विदा हो रही है..
साँसों की डोर जैसे जुदा हो रही है।
वो तेरे बचपन की शैतानी..
याद है तेरी सारी मनमानी
ये टिस भी कैसी बेहूदा हो रही है
आज बेटी विदा हो रही है।
मेरे आँसू ना देख मुस्कुरा रहा हूँ मैं..
हमेशा की तरह बहन के लिए बाँहें फैला रहा हूँ मैं
तू ही धीरे धीरे ओझल और गुमशुदा हो रही है
आज बेटी विदा हो रही है।
अपने पिया के घर सुखी रहना तू..
यहाँ की तरह वहाँ भी सबकी सखी रहना तू
जो कल तक सबकी जान थी आज खुदा हो रही है
आज बेटी विदा हो रही है 🧿
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वो रौनक़ें, वो ख़ुशियाँ सब धूमिल है…
अब पहले वाले वो इतवार खो गए।
अनजानों सी किसी बस्ती में हैं जैसे…
अब मौहल्ले वाले वो यार खो गए।
जानते हैं लौट कर वो वक़्त नहीं आता…
फिर भी यादों में हम हर बार खो गए।
इंटरनेट की दुनिया में मशग़ूल हैं सभी…
अब वो काँचो के बड़े बड़े जार खो गए।
जिनका वादा था ज़िंदगी तक का…
अब वो मेरे अपने लोग चार खो गए।
वो झूले वाली रस्सी, वो तार खो गए…
बचपन वाले वो त्योहार खो गए।
अब पहले वाले वो इतवार खो गए।
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आज चलो मिलकर ज़माने के हालात लिखते हैं
कुछ मेरे दिल के और कुछ तुम्हारी बात लिखते हैं।
बात चाय की हो तो अपने ख्यालात लिखते हैं…
गर जाम की हो तो कैसे हुई शुरुआत लिखते हैं।
दोस्ती है तो उमड़ते दिल के जज़्बात लिखते हैं
गर इश्क़ है तो कैसे कटी तन्हा रात लिखते हैं।
मिले थे पहली बार जब तब की मुलाक़ात लिखते हैं…
जुड़ने के बाद के खट्टे मीठे तालुक़ात लिखते हैं।
जो अनसुलझे से रह गये वो सवालात लिखते हैं…
किन बातों ने किया दिल पे आघात लिखते हैं।
दोस्तों से मिली कुछ सुनहरी सौग़ात लिखते हैं…
चलो आज अपने अपने दिल की बात लिखते हैं।
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बिखर मत तू वक़्त की रुकवाटों से
आगे तो अभी और ज़हर पीना है….
याद है ना ये साँसे भी सिर्फ़ अब तेरी ही नहीं
तुझे किसी और के लिये भी जीना है।
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ये कहानी दर्द की ऐसी है; जो सुनायी ना गई
आप बीती किसी को भी उससे बतायी ना गई…
एक बेटी थी वो… उसने बेटा बनने की ठानी थी
बस यही बात तो इस ज़माने से पचायी ना गई…
माँ बाप का सहारा बनने निकली थी जो
बिना सहारे आज वो मासूम घर लायी ना गई…
कितना दर्द हुआ होगा उस बेचारी को; मौत से पहले,
की जीते जी उसकी ज़िम्मेदारी उठाई ना गई….
बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ वाले इस देश में
फिर एक मासूम; दरिंदों से बचायी ना गई…
देखे थे बेटी की विदाई के सपने जिस बाप ने
अर्थी उठी है उसकी; डोली में विदाई ना गई…
फिर एक घर की मासूम लक्ष्मी
इस देश में बचायी ना गई।
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मौसम की इस धुँध में खो जाना चाहता हूँ मैं
या तो कागज सा भीग जाऊ इस बारिश में
या दरिया सा हो जाना चाहता हूँ मैं….
यूँ अधूरा अधूरा सा कौन रहता है सुकून से
या तो कट जाये रात मदहोशी में
या फिर खामोशी से सो जाना चाहता हूँ मैं…
हँसना मुस्कुराना ही तो फ़ितरत है मेरी
रोने की वजह ख़ास बनाता नहीं
ग़मों को अशकों से धो जाना चाहता हूँ मैं….
ऐसा नहीं कुछ करने का जुनून नहीं
और ना ही कमी हौंसलों की है
पर वही खो जाता हूँ जो पाना चाहता हूँ मैं….
महफ़िल में ही हैं ख़ुशमिज़ाजी के चर्चे अपने
तनहाईंयो में तो अक्सर रो जाना चाहता हूँ मैं
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