हकीकत की जब गिरहें टटोली, तो
बस कुछ बूंद ही टपक रही थी
मगर ,इस दिल के बेपरवाही से भरे
बेखबरी आलम का शोर
अपनी गवाही दे रहा था.....
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Her Heart starts shaking ,
tremendously! Brusting inside
just struggling to come out
Oof!
there's so many sparkles
Surrounding her that night
Stars stick on her body ,the
moon is shinning on her face
With the, stupid eager smile
her heavy eyes, hits different
Waves of winds are across her veins
Minds is wondering whats the gain
But her heart is on a flame!!!
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अगर जीना इतना आसान नहीं,
तो फिर मरना इतना मुश्किल क्यों?
अगर कोई मंजिल ही नहीं,
तो फिर आखिर ये सफर क्यों?
जब जर्रे-जर्रे में बंट ही चुका है,
तो फिर हर जर्रे बाकी है जान क्यों?
कोई किरण कहीं दिखाई नहीं देती,
तो फिर ये उम्मीद बरकरार क्यों?
ये दिल तो मर ही चुका है,
तो फिर बाकी है कुछ खयाल क्यों?
हर पल कुछ बोझल सा है गुजरा,
तो फिर आने वाले कल की आस क्यों?
सवाल बस ये क्या यही है जिदंगी,
तो फिर इसमें जीने की चाह क्यों?
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भ्रम में ही तो मिट गई
बस, कुछ आसारों में सिमट गई
जब बाहों में भरकर गले लगाया
तो आंख दिखाकर तन गई
बेतरतीब थी वो..
खैर! समेट सारी सिसकियों को,
बेबस निगाहें उम्मीद लेकर टिक गईं
मगर, वो बात जो कभी घटी नहीं
वो रात ,जो कभी ढली नहीं
करवटों की आहटें, जो कभी थमी नहीं
है कतारें अब भी वही सुबह और शाम की
मगर कुछ है जो अब ठहर गई
शायद, पैरों की वो चहलकदमी,
बातों की वो अकलमंदी
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खव्हिशों ने भी उन सूबकती, बिखरती
खुद को समेटती उन मंजरो को ठहर कर देखा......-
क्यों इस अक्ल- ए- बाजार में, हुए ये हालात है
पहले तो समेटते, जकड़ते उन किरणों को,
और बहाने फिर वही हजार है!
तजुर्बे भी कहीं गिरवी रख, ढुँढते ये जवाब है!
खींचातानी की तहज़ीब है, और हर नज़र
को किसी निशाने की ताक है
बस!दिखावे की शोर में बिक रहा ये बाजार है
और कहते हैं, इन्हें जीने की तलाश है!
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जमाने के भी अपने अंदाज होते है
पहचाने होकर भी अनजाने होते है
हमने तो समझा था, बातों के भी
आसार होते है
पर पता, यहाँ यादों की भी गुंजाइश
नहीं होती है
क्या खूब होता है यहाँ, डुबने की
चाहत होती है
मगर, बताते है ,कि दरिया के भी
साहिल होते है
हर वक़्त यादों, खयालों, जज्बातों के
सैलाब होते है,
और कहते है, भूलने की आदत हमारी
होती है-
मिट गई है जिंदगी की लज्जत जैसे किसी
आसारों पर आंधियों की खुमार हो
अंदर की बेपरवाही भी कहीं गुम होकर,
बस ओढ़ा कोई फीका मुस्कान हो
शायद जलती-बुझती ख्वाबों की लौ भी,
देखती कोई नई आस हो-
आरज़ू कहाँ रही इस दिल को कुछ कहने की
जो निगाहों से ही बयां हो रहा है
उसे जरुरत कहाँ है लफ्ज़ो की-