मक्कारी की गठरी बांध मैं चला अपने बेईमानी से दूर,
खूब दुनियां को लुटा हैं,अब लूट जाने की बारी हैं, देख तमाशा दुनियां का मैं एक तपस्वी बन जाऊं,
न छूटे यह मक्कारी की गठरी ,बांध चला मैं ईमानदारी की और अब सोचा सुख चैन की जिदंगी जी लूंगा,इस गठरी के आधार पर,
जब खुली कपट, मक्कारी की गठरी तो हाथ पाव भी कांप गए।
यही दुनियां की रीत/चक्र हैं की जो बोयेंगे वहीं पाओंगे।
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