तुम कहां खो गये !
अब वापस भी आ जाओ ,
कितनी और जिम्मेदारियां ,
कितना और इंतजार
माना कि वक्त लगता है,
पर इतना क्या ?
चलो ! थोड़ा और सही
पर सुनो !
"आना तो दस्तक देना,
मैं यहीं हूं दरवाजे पर "
भूलना मत
मैं यहीं हूँ !-
अर्चिता मौर्यवंशी
गट्ठर भरी जिम्मेदारियां लेकर मैं रोज़ निकलता हूँ ,
फिसलता हूँ कई बार लेकिन उठकर फिर चलता हूँ ,
हम्म ; तो क्या कह रही थी तुम
' तुमने मुझे देखा था कल लड़खड़ा कर चलते हुए ! '
अरे नहीं ! शराब वज़ह नहीं है इसकी ,
ज़रा तुम मुझे कल गिनकर बताना
" मैं चलते हुए कितनी बार संभलता हूँ ! "-
बिखरा हुआ मेरे करीब आया वो
कोई और नहीं मेरा ही साया था वो !-
कभी कभी लगता है क्यूँ कोई अपना नहीं होता !
क्यूँ इन बंद कमरों से झांकती हुई खिड़कियों से,
अंदर की तरफ़ कोई आवाज़ नहीं देता !
क्यूँ कोई मेरी चीखती हुई आंखों को देखकर भी नजरअंदाज करके , बस चलता बना !
क्यूँ किसी ने आवाज़ लगाकर कभी ये नहीं पूछा कि,
" जिंदा हो !" , " क्या कुछ जान बची है तुममे ? "
और मन का आखिरी सवाल ही जवाब होता है शायद ;
"क्या शरीर का जिंदा रहना , आत्मा के मर जाने से ज्यादा जरूरी है ? "
-
किसी ने महसूस करके लिखा ;
कोई बस पढ़ गया !
किसी को समझ आई ;
कोई बस देखकर आगे बढ़ गया !-
चलो कहते कहते
आज वो दिन भी आ गया
लेकिन,
कह दूं कुछ शब्द मैं सभी को
तुम रुको तो ज़रा
हां तो तुम ये बताओ ;
ये ढोंग भरी जिंदगी जी कर तुम करोगे ही क्या ?
ये मतलबी सा होकर ही तुम मरोगे क्या ?
चलो अच्छा ये ठीक भी है !
तुम ये बताओ ;
अब दोबारा जरूरत पड़ेगी किसी की
तो उसकी रूह से भी माफ़ी मांगने आओगे क्या ?
अरे नहीं !!!
तो फि़र ये घड़ियाली आंसू उन्हें भी दिखाओगे क्या ?
चलो !!
तुम जिंदा लाशों से और सवाल जवाब क्या ही करें /
तुम बस इतना बताओ ;
ये ढोंग भरा किरदार लेकर ,
ज्यादा दूर तक चल पाओगे क्या ?
-
रात को इस जल्दबाजी में
नींद का दामन पकड़ती थी
कि सुबह जल्दी उठना है
फिर भी उठते उठते सात
या साढे सात बज ही जाते थे
सुबह जल्दी तैयार होकर
अपनी सारी पोथी संभालते हुए
अपने कमरे में दरवाजा बंद करके
चुपचाप नौ बजे तक
अपनी स्टडी टेबल को गले लगा लेती
तो सीधा शाम को ही
विदा लेती !
पर अब
रात को देर से सोकर
सुबह सूरज से भी पहले उठने पर
भी कुछ न कुछ छूट ही जाता है ,
मानों 24 घंटे भी एक दिन में कम ही पड़ जाते हैं !-
जिस दिन ये मुसकुराहट ढल जाएगी
यकीन मानों मेरा
तुम सब को ये कमी खल जाएगी !-