ARCHIT KHANNA   (Archit Khanna)
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Joined 25 September 2021


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Joined 25 September 2021
22 JUN AT 14:58

'अरू' सितम है ये बिछड़े उनसे हुआ 'अर्सा-ए-दराज़,
थके हुए मुसाफ़िर है रहगुज़र में...

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22 JUN AT 14:07

ख़्वाब-ब-ख़्वाब है दर-ब-दर,
प्यास बुझी या आज़ाद कर दी गई...

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19 JUN AT 16:41

रस्ता है कैसा ये रहनुमा है कौन?
तस्वीर है किसकी इसमें हँसता है कौन?

ग़म-ए-हिज्र में हो चुका धुआँ उड़ चुकी याद,
फिर याद में मिरी बच गया है कौन?

इक चराग़ दहकता रहा रात-भर नही मा'लूम,
आतिश-ए-ग़म-ए-'इश्क़ इधर जला रहा है कौन?

होना है उसका फ़िदा फ़रेब-ए-निगाह,
तू भी है फ़िदा फिर अलविदा है कौन?

हम हैं जाम-ए-ज़र और नीलाम हमारे ख़िश्त-ए-सर-ए-ख़ुम,
मय-ख़ाने मिरे जान-ए-जाँ जाने जिसमें ढ़लता है कौन?

यहां दीवार-ओ-दर का नही नाम-ओ-निशाँ झुलस चुकी दर्द-गली शहर-ए-दिल में,
पत्थर-दिल पत्थर हम पत्थर फिर आइना है कौन?

जिसने चाहा नहीं कुछ बग़ैर तिरे,
क्या 'अरु' तेरा नही फिर तिरा है कौन?

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11 JUN AT 23:31

निगाहें

वो निगाहें जो बचा गया मुझसे,
सब कुछ कह, क्या गया मुझसे???

ये हालत-ए-ज़ार? है कौन आइने में?
आइना-ए-'उम्र-ए-गुज़िश्ता? छीना गया? छिन आईना गया मुझसे...

न दूर चला गया मुझसे,मैं मैं ना रहा ना होश?
दूर चला गया तू क्यों चला गया मुझसे???

दिल से रखता गया 'अरु' क़दम-ब-क़दम,
ज़ेहन-ए-इंसानी या'नी नहीं ज़ेहन से चला गया मुझसे...

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11 JUN AT 17:50

ये रूमाल में किसके आंसु छलके,
बारिश-ए-गुल लहू छलके...

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1 JUN AT 22:23

प्रभाते है तिरी ये नई-नई,
मिरी है रातों की चादर वही...

मैं बिखरूं तो मुझको गले से लगा,
दिल हूं जान-ए-जां मैं मोती नहीं...

नींदे जो आती थी संग में 'अरु'
हूं रहता मैं बेचैन कभी-कभी...

तुझको तो इक दो सहारे मिले,
बे-घर हूं घर से बे-घर सही...

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28 MAY AT 15:43

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23 MAY AT 20:39

पड़ी है पर्दों की तरह 'अक़्ल पर ख़्वाहिशें,
हम जले जा रहे हैं चराग़-ए-रह-गुज़र की तरह...

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22 MAY AT 10:58

निकल आई चांदनी आफ़ताब करारा ग़ायब...
महका महताब दिन का साया ग़ायब...

ये किसका 'अक्स जो है मुझमें मौजूद,
'अक्स जाने कहां किसमें है मेरा ग़ायब...

पिला के लहू लहू-लुहान हूं मैं,
क़र्ज़ चुकता और क़तरा-क़तरा ग़ायब...

मैं कश्ती में काफ़ी देर से हूं सवार,
मिल नहीं रहा किनारा ग़ायब...

गए थे भरने टूटे तारे का अश्क अपनी ख़ुश्क आंखों में,
हम छत पर पहुंचे कि तारा ग़ायब...

है किसे उस परिंदे की फ़िक्र-ए-फ़र्दा 'अरु'
जो कि कल उड़ा आज आशियाँ ग़ायब...

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11 MAY AT 22:42

....— % &....— % &....— % &....— % &....— % &प्रेम जो मुझको सदा देती है,
जाऊं दूर तो वही सदा देती है...

आंखों के काजल से 'अरू' आंखें सजा देती है,
सताने वाले को मां सज़ा देती है...

लगूँ रोने तो आब-ए-चश्म बहा देती है,
लेटा गोदी में पल्लू से हवा देती है...

है तूफ़ां के चराग़, ऐ आंधी! नहीं बुझने वाले,
वो बवंडर है कि तुझे राख बना देती है...

मैं दश्त-ए-जुनूँ वो आब-ए-ख़िज़्र,
की बारिश या'नी मुझ पे बरसा देती है...

हम शो'ले कि जो छू ले तो बना दे भांप,
वो बारूद है जो नाम-ओ-निशां मिटा देती है...— % &

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