सफ़र
"बाल्यअवस्था से लेकर बुढ़ापे तक अनकहे लफ्जौं की ज़ुबानी" ।
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कागज़ पर स्याही के रूप में उकेर देती हूं
मन की बाती
आशा का दीप
"प्रज्ज्वलित" कर
मध-मध
जीवन को
प्रकाशित करतीं हैं।-
सन सन करती
उस हवा को
जो शोर कि
गहराईयों में भी
कुछ राज़ भरे
मन के तार को
सादगी से
गुनगुना जाती!-
वहां-वहां हर्ष की किरणें
अंधकार को भेदकर
जीवन को धीरे-धीरे
झिलमिलाती है, जहां संघर्ष है
आरम्भ हमेशा
रहस्यमय परिस्थितियो और
अनगिनत पीड़ाओं से गुज़र कर
अंत कि ओर हास्य भरा होता हैं।-
बिन आहट
होने होले कदमों से
कोई मन के द्वारा पर रुका है
और मैं रोशनी की छांव में
सहमी खड़ी हुई
नजरों से इधर उधर ताकति हुईं
अंधकारमय कोना ढूंढ रही हूं
मानों जैसे
रोशनी की चमक-दमक
मेरा खालीपन पढ़ लेगी,
और मन का सुनापन
छुपते छुपाते एक कोने में
आंखें मूंद कर लम्बी सांस से
अश्कों से भरा कंठ रोक लेती हूं
मानों अंधकारपूर्ण दीवारें
उन आहटों से...मेरे अंश को
मुझ में ही महफूज़ कर लेती हो ।-
जीवन के इस कुरूक्षेत्र में
स्री योगी नहीं
योद्धा बनकर खड़ी है,
बिना तलवार के
कविताओं कि आवाज़ से
बोलती नहीं
चीखती बहुत है,
जज़्बातों के आईने
उम्मीद के कंकड़ से
टूटते तो नहीं
बिखरते बहुत है,
कोशिश कि नांव
मंजिल के चाह में
जीतती तो नहीं
डर से डगमगाती बहुत है,
दर्द के समुंद्र में
डूबती बहुत हूं
लेकिन जीना छोड़ती नहीं ।-
व्यर्थ नहीं हूं मैं
समाज में सीमित हूं,
आज़ाद होकर भी
बंदिशों की कैदी हूं,
कहने को
कदम से कदम मिलाकर
चलूं वो राही हूं,
पुरस्कृत का काला साया
कलंकित भी मैं हूं
सौंदर्ययुक्त वर्णमालाओं कि
त्रुटियों की शृंखला भी मैं हूं,
हूनर से आगे बढूं
चरित्रहीनता का अंधकारमय
किस्सा भी मैं हूं।-
बस चंद बोल
प्रेम से पिघलकर
हर सीमा लांघ
बेनाम रिश्ता भी
रुह से बांधकर
निभाती हूं
कच्ची उम्र कि
नादानी से
समाज कि अग्नि में
बिन विहाही मां से
कलंकित होती हूं-
चारों तरफ भ्रष्टाचार से लाचारी है,
भूख और गरीबी की संघर्षमय कहानी हैं।-