कवि तुम कौन हो ?शब्दों के सागर में गोता लगाते हो
हृदय की गहराइयों से मोती चुन लाते हो
क्या तुम हवा हो जो चुपके से गुनगुनाती
या वो नदी जो स्मृतियों को बहा ले जाती?
तुम कौन हो सपनों का आलम बुनते
रात के सन्नाटे में तारों से बातें करते
तुम्हारी कलम में बस्ती है अदृश्य धुन
हर शब्द में छिपा है जीवन का कोई रंग
या तुम वो चित्रकार जो रंगों से भाव बनाता है
या वो संगीतकार जो रागों में प्रेम गाता है
कवि तुम कौन हो जो दर्द को गीत बनाते
खामोशी की चादर में ख्वाब सजाते
तुम ना कोई परछाई
ना कोई ठोस पहचान,
तुम तो हो वो
जो बांधे हर इंसान।
कवि तुम वो हो जिसके
शब्दों का दीपक अंधेरा समेट लेता है ।
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जिनके हिस्से संघर्ष आया
उनके हिस्से की कामयाबी भी उन्हें मिलनी चाहिए ।-
या तो पढ़ने लायक कुछ लिखें या कुछ ऐसा करें जो लिखने लायक हो।
~ बेंजामिन फ्रैंकलिन-
सोचती हूँ, स्त्रियाँ इतनी निर्दयी कब हो गईं,
कि करने लगीं निर्मम हत्याएँ?
उजाड़ने लगीं अपना ही संसार,
क्या उनकी ममता ने आत्महत्या कर ली,
जो रच सकती थी एक नया जीवन?
उसका ऐसा कृत्य ?
संभवतः वे स्त्री होकर भी
स्त्रीत्व का मोल न समझ पाईं।
क्या उन्होंने नहीं देखा
माँ का परिवार पर जीवन न्यौछावर करना?
क्या नहीं सुना उन्होंने
उस कोमल हृदय की धड़कन,
जो प्यार और त्याग से भरा होता है?
स्त्रियाँ इतनी निर्दयी कब हो गईं?
या शायद ये समाज का दबाव है,
जो उन्हें अपने ही स्वरूप से दूर ले गया।
जो ममता, करुणा और बलिदान का प्रतीक थी,
क्या वह अब क्रोध और इर्ष्या में बदल गई?
क्या सच मे स्त्रीत्व मर चुका है ?
या कहीं गहरे में साँस ले रहा है ?
जो संसार को जोड़ती है, सँवारती है।
स्त्री केवल देह नहीं,
वह जीवन की सृष्टि है,
उसका हर कदम प्रेम और करुणा की राह हो,
तब शायद यह प्रश्न मिट जाए—
स्त्रियाँ इतनी निर्दयी कब हो गईं?-
मैं मौन हूँ
समझ नहीं पा रहा कौन हूँ
हर किसी मे होते है दो आदमी
एक वो जिसे हम जानते है
दूसरा जिसकी हमे तलाश होती है
हम सोचते अनन्त सब कुछ ठीक हो जाता है
लेकिन, ऐसा ही होगा जरूरी नहीं....
कई बार चीजें हमारे अनुसार नहीं होती
लेकिन हमारे लिए सही होती है
और यही जीवन है...-