“किसके लिए ‘अर्पित’ छोड़ूँ नक़्श मैं यहाँ;अब कोई नहीं इस शहर में समझे मेरी ज़बाँ।” -
“किसके लिए ‘अर्पित’ छोड़ूँ नक़्श मैं यहाँ;अब कोई नहीं इस शहर में समझे मेरी ज़बाँ।”
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“‘अर्पित’ चश्म-ए-आरज़ू पे नज़र जो पड़ी;तिश्ना को देख कर मेरी दरिया सहम गया।” -
“‘अर्पित’ चश्म-ए-आरज़ू पे नज़र जो पड़ी;तिश्ना को देख कर मेरी दरिया सहम गया।”
“‘अर्पित’ यूँ तो हम भी ख़ुश-गुफ़्तार थे बड़े;मुस्कान उसके लब की से लेकिन सदा हारे।” -
“‘अर्पित’ यूँ तो हम भी ख़ुश-गुफ़्तार थे बड़े;मुस्कान उसके लब की से लेकिन सदा हारे।”
“चेहरा कोई भी चाहे ना मुझसा यहाँ दिखना;साये से भी ’अर्पित’ शबाहत नहीं मेरी।” -
“चेहरा कोई भी चाहे ना मुझसा यहाँ दिखना;साये से भी ’अर्पित’ शबाहत नहीं मेरी।”
“रहबर बनाया माह को ‘अर्पित’ ब-उम्मीद;मंज़िल न मिली उसको और ना ही मिली मुझे।” -
“रहबर बनाया माह को ‘अर्पित’ ब-उम्मीद;मंज़िल न मिली उसको और ना ही मिली मुझे।”
“‘अर्पित’ ख़ुद को भी ना कहीं भूल मैं जाऊँ;अब इतनी भी शिद्दत से नहीं याद आ मुझे।” -
“‘अर्पित’ ख़ुद को भी ना कहीं भूल मैं जाऊँ;अब इतनी भी शिद्दत से नहीं याद आ मुझे।”
“‘अर्पित’ खड़े बिकने को हैं सब क़तार में;क्या है जो दस्तियाब नहीं इस बज़ार में।” -
“‘अर्पित’ खड़े बिकने को हैं सब क़तार में;क्या है जो दस्तियाब नहीं इस बज़ार में।”
"आहट किसी के पाँव की आई न सुब्ह तक;'अर्पित' हम दिल की धड़कनों के निगहबान ही रहे ।" -
"आहट किसी के पाँव की आई न सुब्ह तक;'अर्पित' हम दिल की धड़कनों के निगहबान ही रहे ।"
“‘अर्पित’ गुलसितां है ये महफ़ूज़ ख़िज़ाँ से;हर बर्ग-ए-गुल पे नाम लिख छोड़ा है जो तिरा।” -
“‘अर्पित’ गुलसितां है ये महफ़ूज़ ख़िज़ाँ से;हर बर्ग-ए-गुल पे नाम लिख छोड़ा है जो तिरा।”
“‘अर्पित’ इतनी कम नहीं क़ीमत यहाँ मिरी;कुछ कीमिया भी है मिला इस मिट्टी में मिरी।” -
“‘अर्पित’ इतनी कम नहीं क़ीमत यहाँ मिरी;कुछ कीमिया भी है मिला इस मिट्टी में मिरी।”