“किसके लिए ‘अर्पित’ छोड़ूँ नक़्श मैं यहाँ;
अब कोई नहीं इस शहर में समझे मेरी ज़बाँ।”-
𝙏𝙝𝙞𝙨 𝙖𝙘𝙘𝙤𝙪𝙣𝙩 𝙗𝙚𝙡𝙤𝙣𝙜𝙨 𝙩𝙤 𝘼�... read more
“‘अर्पित’ चश्म-ए-आरज़ू पे नज़र जो पड़ी;
तिश्ना को देख कर मेरी दरिया सहम गया।”-
“‘अर्पित’ यूँ तो हम भी ख़ुश-गुफ़्तार थे बड़े;
मुस्कान उसके लब की से लेकिन सदा हारे।”-
“चेहरा कोई भी चाहे ना मुझसा यहाँ दिखना;
साये से भी ’अर्पित’ शबाहत नहीं मेरी।”-
“रहबर बनाया माह को ‘अर्पित’ ब-उम्मीद;
मंज़िल न मिली उसको और ना ही मिली मुझे।”-
“‘अर्पित’ ख़ुद को भी ना कहीं भूल मैं जाऊँ;
अब इतनी भी शिद्दत से नहीं याद आ मुझे।”-
“सहम जाता हूँ हर खटके पे शब की तीरगी में मैं;
मगर ‘अर्पित’ ख़ुश हूँ तिफ़्ल मुझमें अब भी ज़िंदा है।”
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“अब इतनी सताइश भी ना लोगों करो मेरी;
मौला को फिर ‘अर्पित’ ज़रा रश्क़ होता है।”-
“‘अर्पित’ खड़े बिकने को हैं सब क़तार में;
क्या है जो दस्तियाब नहीं इस बज़ार में।”-
"आहट किसी के पाँव की आई न सुब्ह तक;
'अर्पित' हम दिल की धड़कनों के निगहबान ही रहे ।"-