भाग १
सखी
किवाड़ पर देखो जब वो आएं तो कहो ठंडी पवन चल रही ।
मैं व्यथित और उदास नहीं हूं पर इतने दिनों से तो थी!
अब आने की खबर मात्र से सब गायब हो गया है।
बस प्रसन्नता से मन भरा जाता है।
ये स्याह चेहरा जो संताप से दूषित था,
आने की खबर सुन कैसा खिल गया है।
सखी
कुछ ऐसा करो मैं कोप भवन की कैकेयी प्रतीत हूं।
मगर ये आंखें उर्मिला सी लग रही हैं......
सखी!
पर्दा कर लूं? मगर ये सांसे जो तेजी से चल रही हैं.
ये अधर जो रह रह कर मुस्कुरा रहें हैं।
ये हाथ जो उसके स्पर्श की लालसा लिए हैं,
सब मेरे होते हुए भी उसके चाकर बने बैठे हैं।
सखी,
लाओ मुझे वो किताब दो मैं उसके सामने वही पढूंगी
जिसने मेरे इंतजार में रंग भरा है।
भाग २
सखी!!
ठंडी पवन नहीं चल रही है।
घाम तेज हो गया है।
किवाड़ बन्द हो गया है।
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