सबसे ज़्यादा भ्रमित करते हैं हमें,
हमारे शब्द !
किसी से नाराज़गी जताते शब्द,
उपरांत पीड़ा पहुँचाते हैं !
किसी की बुराई में कहे गए शब्द,
उपरांत ठेस पहुँचाते हैं !
फ़िर आता है काल पश्चाताप का !
शब्दों का सही उपयोग आवश्यक है !
परंतु पीड़ादायक शब्दों की,
ग्लानि से निकलना,
अति आवश्यक है !
बीते हुए कल और कहे हुए शब्दों की,
वापसी नहीं होती !
उन्हें अपने भीतर से जाने देना,
अत्यंत आवश्यक, शांतिप्रिय व सुखमय है !-
हर बात को थोड़ा जाना..
कम जाना...
अधूरा जाना !
शायद खुद को भी...
इसलिए कभी...
जान न सका !-
मेरे पांव जल रहे थे,
मैं चल रहा था,
मंज़िल दूर नहीं थी।
साल बीते, हालात बदले,
मैं चलता रहा,
मंज़िल दूर नहीं थी।
मंज़िल मिल गई एक दिन,
पर अब मंज़िल कुछ और थी,
वह मंज़िल भी दूर नहीं थी।
मंज़िल बदलती रही,
मैं चलता रहा, पर हर बार,
मंज़िल, दूर नहीं थी।-
कोई कैसे किसी की याद में,
सारी ज़िन्दगी गुज़ार लेता है?
उस प्रेम को क्या हम,
किसी के साथ रहते हुए,
जीते हुए, सोते-जागते हुए,
महसूस कर पाते हैं?
या विरह ज़रूरी है,
प्रेम की अनंतता को,
महसूस करने के लिए?
क्या सच्चा प्रेम,
विरह में ही मुमकिन है?-
When we allow the outer circumstances to hit us, they hit us hard. We must not allow them to control us anyways.
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मैं जब-जब खुद से हारा,
जीवन ने ढाँढस बँधाया।
मैं जब जीतकर गुरुर में चूर हुआ,
जीवन ने सबक सिखाया।
इस जीवन ने हर पल मुझमें,
संतुलन बनाए रखा।-