कितना कठिन है ना...प्रेम में कुछ भी नया करना,फिर चाहे वह गलतियां ही क्यों ना हो।आखिर गलतियां भी तो प्यार को बढ़ाती है,मौका देती है प्रेम के प्रदर्शन का,विश्वास के नए प्रतिमान गढ़ने का।
उस सुख को परिभाषित नहीं किया जा सकता,जब आपकी गलती पर भी आपका हमसफर आपके पक्ष में खड़ा हो,आपका हाथ थामे इस बात का एहसास कराते हुए कि"देखो तुम्हारे व्यक्तित्व के इस कमजोर पक्ष में भी मैं मजबूती से तुम्हारे साथ खड़ा हूं।जैसा कि मैं वादा किया था,तुम्हारे व्यक्तित्व का यह रूप भी मुझे स्वीकार है।मैं तैयार हूं तुम्हें संभालने के लिए,तुम्हारे क्रोध को अपनी सौम्यता से शांत करने के लिए।हां ! मैं तैयार हूं क्योंकि मैंने वादा किया था"
शायद इसी उम्मीद में मैं हर बार एक नई गलती करने के लिए अपने व्यक्तित्व के तथाकथित सुदृढ़ पिंजरे से बाहर निकल कर उड़ जाना चाहती हूं और मौका देना चाहती हूं प्रेम और विश्वास को स्वयं की सिद्धि का, आत्म प्रदर्शन का।पर जब संस्कारों के अधीन हो कोई बड़ी गलती नहीं कर पाती,जब इंतजार करते-करते सांझ ढल जाती है पर मुझे ढूंढने निकली कोई निगाहें नजर नहीं आती तब फिर से अपने पंखों में उसी एक पुरानी गलती को समेट कर खुद ही लौट आती हूं उस खूबसूरत पिंजरे में और ढलते सूरज की तरह मेरा प्रेम और विश्वास भी ढलता ही जाता है इस आरोप के साथ कि"एक ही गलती कितनी बार दोहराओगी हमें लगा तुम खुद ही संभल कर लौट आओगी"
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