तेरी निगाह में इक शक्ल दे रहा है मुझे...
मेरा ही अक्स मेरी नक़्ल दे रहा है मुझे...
मैं एक तीसरी दुनिया में मुब्तिला हूँ कहीं
तू दो जहाँ की कहाँ अक्ल दे रहा है मुझे...
मैं इक ख़याल के सहरा की प्यास हूँ जैसे
कोई सराब तेरी शक्ल दे रहा है मुझे...
ज़मीन-ए-दिल पे मुक़द्दर ने हिज्र बोया था
जो ग़म की रोज़ नई फ़स्ल दे रहा है मुझे...
तेरे ख़याल पस-ए-रूह ले गए मुझको
ये जिस्म फिर भी वहाँ दख़्ल दे रहा है मुझे...
गुज़र ही जाएगी हर शय यही हक़ीक़त है
वो ये दलील पस-ए-क़त्ल दे रहा है मुझे...
ये "अर्श" जुल्म है तन्हाई के मुसाफिर पर
ये चाँद ख़ाब-ए-शब-ए-वस्ल दे रहा है मुझे...
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