रिश्तों की मिठास सागर-सा भरा, बात होती रिश्तों की खास
बात बचपन की, सह परिवार अनुशासन प्रिय की
होती इनमें ही रिश्तों की मिठास,
मिठास लगता जैसे,पतझड़ बसंत बहार-सी
खिटपिट, नोंक-झोंक, तकरार-सी
बुंदे बरसती कभी खट्टी-मीठी, आंवले के एहसास-सी
संग रहने का मिठास, थोड़ी-मोड़ी शरारते होती, कभी होती साजिशें भी
दु:ख-सुख में एक होते, बढ़ती जो मिठास
रिश्तों की डोर जिंदगी भर ना टूटें
बिखरी जिंदगी को समेटती, कड़वाहट खत्म करती
अपनों का एहसास कराती, रिश्तों की मिठास
जैसे... मन, चेहरे की मुस्कान झलकती रिश्तों की मिठास में
कहीं दूर जाने के बाद, खुशबू महकती-चहकती रहे हैं रिश्तों की बगिया मिठास से
रिश्तों में मिठास रही कहाँ, अब... रिश्तो की डोर में
दम तोड़ते रिश्ते जाए जहाँ, श्राध्द का खीर खाकर खत्म हो जाता रिश्ता यहाँ
अब रिश्तों की मिठास रही कहाँ..... वो भी दिन, क्या दिन थे..
लड़ते-झगड़ते, छीना-झपटी एक ही चीज मिल बैठकर खाते
अब.... ना, वो दिन रहे__ ना, छीना-झपटी रही
कहाँ गए उस दिन के रिश्तों की मिठास
बीते दिनों में जाकर, आँखें नम होती
होठों पर मुस्कान आती बढ़ते उम्र का, रिश्तों की मिठास-
सभी को आदर प्रणाम,
Wish me on 14 जून
मउसम लेत अंगड़ाई, मन में बजत हौ शहनाई
बरख... read more
प्रिय अकेलापन, लिखते समय जितना भी तुम साथ हो, वो काफी नहीं, इसलिए तुम्हें अपना एकांत बना लिया है। अब बैठते हैं हम तीनों साथ-साथ एकांत, मौन और तुम (अकेलापन), तुम अधनंगी शाम-सी और भटका हुआ, चुभता हुआ, तुम और तुम्हारा अकेलापन अतीत की मृत फूलों में लिपटा हुआ मेरा मन अकेला है। अक्सर अकेला खुद से बातें करने लगता हूँ। खुद ही रूठता, खुद ही मनाता हूँ। तनहाइयाँ होती जब साथ, थोड़ी गुफ्तगू कर लेता हूँ। अतीत एक मृत फूल है जो, अकेला तुम्हें पाकर तुम्हारा विनाश करेगा, व्यंग्य पर व्यंग्य की बरसात करता रहेगा। वह बात-बात पर, बात बुन-चुनकर तुम्हारा जीना शर्मसार करेगा।
प्रिय अकेलापन, जिस तरह जलते हुए मरुस्थल में तितली का पंख झर जाता है ठीक वैसे ही, अतीत एक मृत फूल है जो, कभी जीवित नहीं हो सकता। परंतु, अपनी खुशबूदार यादों, जज्बातों, वो पलछिन रातों को टूटे हुए, मृत सपनों के साये में छोड़ देता है।
प्रिय अकेलापन, तुम कभी टूटना नहीं, हारना नहीं, अकेले से ज्यादा अकेलेपन में पसरना नहीं, अतीत की गलियारे में खोना नहीं क्योंकि, तुम एक हवा की तरह कोई आकार हो जिससे, हम दोनों ही साँस लेते हैं। तुम अकेलेपन के पहिए में अपनी धूरी पर घूमती वो पृथ्वी हो। स्वयं को अकेलेपन में सहेजती उन काले, सफेद बादलों की तरह तुम्हारा अकेलापन अतीत की मृत फूल-सा छा जाता है।
तुम्हारा एकाकी सुहृदय,-
वक्त्त की डोर बाँध कर रखिये
रेत-सा फिसलता है वक्त मान कर चलिये
गरीब और बेबसी, भूख और दर्द
यही वक्त्त का तकाजा है
कुछ पैसे, दाना-पानी और अन्न
हमेशा जरूर सहेज कर चलना है
वक्त की डोर थामें चलना
वक्त की परवाह करना
कल और कल की सोच में
आज का वक्त्त बर्बाद नहीं करना है-
जब बढ़ जाये पाप में दहकती अंगारे
तब उठा लेना सुदर्शन चक्र तुम घनश्याम-
माँ का हाथ थाम कर भगवान को पहचाना है
उनके लाड़-प्यार में सच्चा ज्ञान-विज्ञान जाना है
कांटों पर चलकर भी संतुष्टि में रहना है,
ऊँचे-ऊँचे टीलों पर चढ़ ऊँचाईयों को छूना है,
प्रलयकाल की हलचल अपने मन से पार कर,
कठिनाइयों से अभी तो लड़ना है
मै नन्हा-सा बालक अभी तो चलना सीखना है
माँ का हाथ थाम कर,
रंग बिरंगी दुनिया को महसूस कर लिखना है
छोटे मुख कैसे करूँ गुणगान, माँ के हाथों का
थाम कर माँ का हाथ,
अपनी जिंदगी की बागडोर संभालना है-
प्रिय अकेलापन, लिखते समय जितना भी तुम साथ हो, वो काफी नहीं, इसलिए तुम्हें अपना एकांत बना लिया है। अब बैठते हैं हम तीनों साथ-साथ एकांत, मौन और तुम (अकेलापन), तुम अधनंगी शाम-सी और भटका हुआ, चुभता हुआ, तुम और तुम्हारा अकेलापन अतीत की मृत फूलों में लिपटा हुआ मेरा मन अकेला है। अक्सर अकेला खुद से बातें करने लगता हूँ। खुद ही रूठता, खुद ही मनाता हूँ। तनहाइयाँ होती जब साथ, थोड़ी गुफ्तगू कर लेता हूँ। अतीत एक मृत फूल है जो, अकेला तुम्हें पाकर तुम्हारा विनाश करेगा, व्यंग्य पर व्यंग्य की बरसात करता रहेगा। वह बात-बात पर, बात बुन-चुनकर तुम्हारा जीना शर्मसार करेगा।
प्रिय अकेलापन, जिस तरह जलते हुए मरुस्थल में तितली का पंख झर जाता है ठीक वैसे ही, अतीत एक मृत फूल है जो, कभी जीवित नहीं हो सकता। परंतु, अपनी खुशबूदार यादों, जज्बातों, वो पलछिन रातों को टूटे हुए, मृत सपनों के साये में छोड़ देता है।
प्रिय अकेलापन, तुम कभी टूटना नहीं, हारना नहीं, अकेले से ज्यादा अकेलेपन में पसरना नहीं, अतीत की गलियारे में खोना नहीं क्योंकि, तुम एक हवा की तरह कोई आकार हो जिससे, हम दोनों ही साँस लेते हैं। तुम अकेलेपन के पहिए में अपनी धूरी पर घूमती वो पृथ्वी हो। स्वयं को अकेलेपन में सहेजती उन काले, सफेद बादलों की तरह तुम्हारा अकेलापन अतीत की मृत फूल-सा छा जाता है।
तुम्हारा एकाकी सुहृदय,-
तन्हा-तन्हा सी मै, तन्हा-तन्हा सी मेरी तन्हायी
तन्हा-सी मेरी खामोशी, चेहरे पर उदासी छायी
आंखें तन्हा, सपने भी तन्हा, कैसी है ये तन्हायी
ये रुसवायी, न जाने कौन-सी यह ऋतु ले आयी-
लचकाती-बलखाती लहरों को, समंदर की हिलोरती कहरों को
आज कैद कर लूँ ये अठखेलियां, ज्यों समंदर तट को चूम लिया-
कैद कर लेना तुम, समंदर का वह मंजर, अपने कैमरे में
जो लहरें चूम-चूमकर, झूम-झूमकर आ रही है किनारे पे-
यह तन्हाई भी कभी हंसाती कभी रुलाती
न जाने कैसे-कैसे बड़े ख्वाब हैं दिखलाती-