चाँदनी हो चाँद न हो,
साँझ हो पर प्राण न हो,
भीड़ में खोए हुए से
ऐसे भला पहचान क्या हो ?
तुम नहीं जो निकट मेरे
शून्यता ने घेर घेरा,
तुम बिना हे चेतना!
क्या भला अस्तित्व मेरा?
पर्ण पल्लव पर तुहिन सा
तोय हूं तोया नहीं पर।
गीत हूं तो स्वर कहां है
स्वर बनूं तो राग आधा।
बिन तुम्हारे सर्वदा ही
शीष का हर कोर कारा
तुम बिना हे! चेतना
क्या भला अस्तित्व मेरा।।
दीप हूं जलती हुई पर
ज्योति में वो लौ कहां है।
मन्द- मन्द मैं बुझ रही हूं
अवसान भी तो सत्य है पर।
परिहास या कि छल रहे हो
है सिक्तिता फिर भी अधूरा
तुम बिना हे! चेतना
क्या भला अस्तित्व मेरा।।
-अवनि..✍️✨
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चारु चंचल रश्मियों में सांझ ढ़़लकी
अलकों सी सज-धज चली है कांध झलकी
रिक्तता से भरी हूं सिक्तता की लालसा भी
आदि हो आराध्य तुम, अवसान मैं ही
सब सुख विसर्जित सुख तुम्हारे ध्यान में ही।
रिक्त चेतना से हुए चित्त को टटोलो ।
नाथ! अब तुम हृदय का द्वार खोलो।।
नित नयन मैं राह में धरती रही हूं
काल जाने किस काल से धरती पड़ी हूं
कोर सूखे से हुए कि भीग जाते हैं क्षणिक ही
स्वछंद विचरण में रही, अवधान मैं ही
सब सुख विसर्जित सुख तुम्हारा ध्यान में ही।
कब तक सहूंगी विरह का ताप बोलो
नाथ! अब तो हृदय का द्वार खोलो।।
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बह रही है रात कारी, भय अचानक जागता है
कैसी सुबह नव आएगी, संदेह में रण ताकता है
कौन किसके अंक होगा कौन किसको त्याग देगा
और कितना ही विदारक अंश का विध्वंस होगा
चन्द्र तारक हे गगन के और धरा के उजालों
दो सुखद् का मात्र क्षण ही, वेदना जो तारता हो।
पंच तत्वों की नमी, चारों दिशाएं शून्य सी
आरंभ ये नवीन तो अवसान चिर युगों का भी
चित्त में अवसाद की प्रस्तर कुठाराघात कर
पूछती है श्वास मेरी अन्त भयानक रात का।
पसारे पैर लालसा घनघोर कारे चित्त और
लांघती ही जा रही सीमाएं परिसीमाओं को
काल का विकराल दंश छूट फिर दहाड़ता है
शून्य से विस्तार तक इक निवाला काढ़ता है
कोई क्या हर सकेगा पीर इस आघात का।।
कैसी सुबह नव आएगी, संदेह में रण ताकता है।।-
अर्थ जीवन का तुम्हीं से।
मन मान जाता है मना कर
व्यर्थ हैं सौ यत्न कोरे
अभिचार है आचार या कि
चक्षुओं का दोष सारा।।
छवि तुम्हारी इन नयन में
झलकियोंं की टोह धरके
बैठ जाती हैं ये हठ कर
और कहती फिर सरासर
अर्थ जीवन का तुम्हीं से।
चारु चंचल चांदनी जब
डूब सरसी में मचलती,
भग्न करके मोह सारे
धरती अनगिन राग धरती
इस मनोरम दृश्य से हट
कह ही देता है हृदय ये
अर्थ जीवन का तुम्हीं से।।
- अवनि..✍️✨
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देख पुनः मैं जाग उठा।
मानव के निर्दय हाथों से
मुंह की भी खाई काठों से
फिर जाने कितने दर्द सहे
और टूट रहा था अन्दर से
अनहद पीर का भार लिए
अन्त:मन की सरिता से
कलकल करता चीख उठा
देख पुनः मैं जाग उठा।
कुम्हलाया जो निमिष मात्र
पीछे दौड़ पड़े थे व्याघ्र।
शेष रहा अवशेष नहीं
जैसे हृदय आवेग नहीं।
शीत सलिल ने घाव भरे
फिर धरती पर पांव पड़े ?
अम्बर से आंख मिचौली को
साध गति मैं ढीठ उड़ा।
देख पुनः मैं जाग उठा।।
- अवनि..✍️✨
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मैं विहंगम नील गगन की
उन्मुक्त गगन है वास मेरा
भोर देख मद्धम मुस्काऊं
चहकूं 'पर'अपने फैलाऊं
संग गाऊं चहकी-चहकी।
हठखेली हठ प्रिय पंखों में
कोरे सपन के,बूंद नयन में
उर में 'जय' उमंग भर लाऊं
पीली सरसों सी मन-हरणी
हर्ष के'सर' में महकी-महकी
हरी-हरी मही प्रकृति निराली
फुदक-फुदक उडूं डाली-डाली
भाव-विभोर विहग मैं ख्याली
छायी नमी , मन में हरियाली।।
- अवनि..✍️✨
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घबराना नहीं
मंजिलों तक ले जाएंगे तुम्हें
कंटीले सही गुजरने के वास्ते हैं
ये पगडंडियों के रास्ते हैं।-
यदि पथ में मुश्किलें नहीं हो
पग रोके अटकलें नहीं हो
छिले नहीं जब-तक पग छाले
जब भी गिरा कुसुम गिरा पग
फिर पथिक! कहो पथ चलने का कहां मजा है।
नूतन स्वप्न सही करने में
जीवन का अर्थ समझने में
जब तक तोड़ हृदय न रख दे
गात भयानक झंकृत न हो
पंथी! सच ही बतलाना उस मंजिल का कहां मजा है।
-अवनि..✍️✨
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रे! परदेसी आते हो क्या।
आज वहीं फिर बैठी आकर, रीते बीते दिवस जहां पर
स्मरण तुम्हें भी होंगे क्षण वो, शाख घनेरी राह पुरानी
जाने क्यूं डूबी उसी ताल में ,सपनों के ये किस जाल में
रे ! परदेसी आते हो क्या।
नैना कोरों से न छलकें, मींचे रखा सदा से पलकें
विरह के कितने भाव संभालूं, इक डोर बांध कर रखी थी
अब बीत गयीं हों सदियां जैसे, टूट रही है मद्धम मद्धम
रे! परदेसी आते हो क्या।-
"आस"
कैसी विघ्न कहो इस जग में
माप सकी जो धरणी पग से?
शून्य विवेक विनाशाभिलाषी
आस चेतना से परिभाषी।
राह तो घेरेंगे ही अपरिचित
हल भी प्रतीतेगें सब खण्डित
धैर्य साध बढ़ मद्धम गति से
आस नवोदित होती मति से।
तिमिर गहे जब मिथ्या प्रकरण
उदर उधेड़े और अकारण
किरणों की लौ लिए उभरता
मनस् पटल का कोमल दर्पण।।
-अवनि✍️✨
२६/०४/२०२३
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