अर्थ जीवन का तुम्हीं से।
मन मान जाता है मना कर
व्यर्थ हैं सौ यत्न कोरे
अभिचार है आचार या कि
चक्षुओं का दोष सारा।।
छवि तुम्हारी इन नयन में
झलकियोंं की टोह धरके
बैठ जाती हैं ये हठ कर
और कहती फिर सरासर
अर्थ जीवन का तुम्हीं से।
चारु चंचल चांदनी जब
डूब सरसी में मचलती,
भग्न करके मोह सारे
धरती अनगिन राग धरती
इस मनोरम दृश्य से हट
कह ही देता है हृदय ये
अर्थ जीवन का तुम्हीं से।।
- अवनि..✍️✨
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देख पुनः मैं जाग उठा।
मानव के निर्दय हाथों से
मुंह की भी खाई काठों से
फिर जाने कितने दर्द सहे
और टूट रहा था अन्दर से
अनहद पीर का भार लिए
अन्त:मन की सरिता से
कलकल करता चीख उठा
देख पुनः मैं जाग उठा।
कुम्हलाया जो निमिष मात्र
पीछे दौड़ पड़े थे व्याघ्र।
शेष रहा अवशेष नहीं
जैसे हृदय आवेग नहीं।
शीत सलिल ने घाव भरे
फिर धरती पर पांव पड़े ?
अम्बर से आंख मिचौली को
साध गति मैं ढीठ उड़ा।
देख पुनः मैं जाग उठा।।
- अवनि..✍️✨
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मैं विहंगम नील गगन की
उन्मुक्त गगन है वास मेरा
भोर देख मद्धम मुस्काऊं
चहकूं 'पर'अपने फैलाऊं
संग गाऊं चहकी-चहकी।
हठखेली हठ प्रिय पंखों में
कोरे सपन के,बूंद नयन में
उर में 'जय' उमंग भर लाऊं
पीली सरसों सी मन-हरणी
हर्ष के'सर' में महकी-महकी
हरी-हरी मही प्रकृति निराली
फुदक-फुदक उडूं डाली-डाली
भाव-विभोर विहग मैं ख्याली
छायी नमी , मन में हरियाली।।
- अवनि..✍️✨
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घबराना नहीं
मंजिलों तक ले जाएंगे तुम्हें
कंटीले सही गुजरने के वास्ते हैं
ये पगडंडियों के रास्ते हैं।-
यदि पथ में मुश्किलें नहीं हो
पग रोके अटकलें नहीं हो
छिले नहीं जब-तक पग छाले
जब भी गिरा कुसुम गिरा पग
फिर पथिक! कहो पथ चलने का कहां मजा है।
नूतन स्वप्न सही करने में
जीवन का अर्थ समझने में
जब तक तोड़ हृदय न रख दे
गात भयानक झंकृत न हो
पंथी! सच ही बतलाना उस मंजिल का कहां मजा है।
-अवनि..✍️✨
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रे! परदेसी आते हो क्या।
आज वहीं फिर बैठी आकर, रीते बीते दिवस जहां पर
स्मरण तुम्हें भी होंगे क्षण वो, शाख घनेरी राह पुरानी
जाने क्यूं डूबी उसी ताल में ,सपनों के ये किस जाल में
रे ! परदेसी आते हो क्या।
नैना कोरों से न छलकें, मींचे रखा सदा से पलकें
विरह के कितने भाव संभालूं, इक डोर बांध कर रखी थी
अब बीत गयीं हों सदियां जैसे, टूट रही है मद्धम मद्धम
रे! परदेसी आते हो क्या।-
"आस"
कैसी विघ्न कहो इस जग में
माप सकी जो धरणी पग से?
शून्य विवेक विनाशाभिलाषी
आस चेतना से परिभाषी।
राह तो घेरेंगे ही अपरिचित
हल भी प्रतीतेगें सब खण्डित
धैर्य साध बढ़ मद्धम गति से
आस नवोदित होती मति से।
तिमिर गहे जब मिथ्या प्रकरण
उदर उधेड़े और अकारण
किरणों की लौ लिए उभरता
मनस् पटल का कोमल दर्पण।।
-अवनि✍️✨
२६/०४/२०२३
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सम्मोह के विछोह में
जानती हूं क्षण दु:खद् है
तुम ही कहो नाथ! मेरे.
मिथ्य जगत् में क्या सुखद् है?
इन अश्रुओं की धार से
न करो शैय्या सुसज्जित,
हर्ष मुखरित हो पटल पर
तो राह मेरी हो सुगन्धित।
अन्त ही तो अर्थ है,
सत्त सारे व्यर्थ हैं।
जर्जर हुई इस कुईं के
रजसार होने दो दीये।
भव पार होने दो प्रिये!
-अवनि..✍️✨
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नीलवर्णी दीप तुम कुलभास्कर रघुवंश के
हर्ष मुखरित हो रहा साकेत के नववंश से।
सर्वत्यागी तुम मधुर हो और सकल आधान हो
बसते जिसके प्राण में उस पितृ के तुम राम हो।
धैर्य के पर्याय हो, तुम वीर हो बलवान हो,
अग्र हो भ्राताओं में, मातृ के अभिमान हो।
साधुओं! के प्राण रक्षी धृष्टता भजते नहीं,
ये जगत अनुचर तुम्हारा पथप्रदर्शक राम हो।
जन्म लेता है दिवस, गोते लगाती है निशा
दर्श को आतुर हवाएं और जगाती हैं तृषा
इस जहां के हर रवा में, जो बसे वो गाम हो।
स्मृतियों के पटल में, तुम ही आठों याम हो।।
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