Anuradha (अवनि...✍️✨)   (अवनि...✍️✨)
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Joined 28 June 2020


Joined 28 June 2020

यदि पथ में मुश्किलें नहीं हो
पग रोके अटकलें नहीं हो
छिले नहीं जब-तक पग छाले
जब भी गिरा कुसुम गिरा पग
फिर पथिक! कहो पथ चलने का कहां मजा है।

नूतन स्वप्न सही करने में
जीवन का अर्थ समझने में
जब तक तोड़ हृदय न रख दे
गात भयानक झंकृत न हो
पंथी! सच ही बतलाना उस मंजिल का कहां मजा है।
-अवनि..✍️✨






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रे! परदेसी आते हो क्या।

आज वहीं फिर बैठी आकर, रीते बीते दिवस जहां पर
स्मरण तुम्हें भी होंगे क्षण वो, शाख घनेरी राह पुरानी
जाने क्यूं डूबी उसी ताल में ,सपनों के ये किस जाल में
रे ! परदेसी आते हो क्या।

नैना कोरों से न छलकें, मींचे रखा सदा से पलकें
विरह के कितने भाव संभालूं, इक डोर बांध कर रखी थी
अब बीत गयीं हों सदियां जैसे, टूट रही है मद्धम मद्धम
रे! परदेसी आते हो क्या।

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"आस"

कैसी विघ्न कहो इस जग में
माप सकी जो धरणी पग से?
शून्य विवेक विनाशाभिलाषी
आस चेतना से परिभाषी।

राह तो घेरेंगे ही अपरिचित
हल भी प्रतीतेगें सब खण्डित
धैर्य साध बढ़ मद्धम गति से
आस नवोदित होती मति से।

तिमिर गहे जब मिथ्या प्रकरण
उदर उधेड़े और अकारण
किरणों की लौ लिए उभरता
मनस् पटल का कोमल दर्पण।।
-अवनि✍️✨
२६/०४/२०२३












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सम्मोह के विछोह में
जानती हूं क्षण दु:खद् है
तुम ही कहो नाथ! मेरे.
मिथ्य जगत् में क्या सुखद् है?
इन अश्रुओं की धार से
न करो शैय्या सुसज्जित,
हर्ष मुखरित हो पटल पर
तो राह मेरी हो सुगन्धित।

अन्त ही तो अर्थ है,
सत्त सारे व्यर्थ हैं।
जर्जर हुई इस कुईं के
रजसार होने दो दीये।
भव पार होने दो प्रिये!
-अवनि..✍️✨


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नीलवर्णी दीप तुम कुलभास्कर रघुवंश के
हर्ष मुखरित हो रहा साकेत के नववंश से।
सर्वत्यागी तुम मधुर हो और सकल आधान हो
बसते जिसके प्राण में उस पितृ के तुम राम हो।


धैर्य के पर्याय हो, तुम वीर हो बलवान हो,
अग्र हो भ्राताओं में, मातृ के अभिमान हो।
साधुओं! के प्राण रक्षी धृष्टता भजते नहीं,
ये जगत अनुचर तुम्हारा पथप्रदर्शक राम हो।


जन्म लेता है दिवस, गोते लगाती है निशा
दर्श को आतुर हवाएं और जगाती हैं तृषा
इस जहां के हर रवा में, जो बसे वो गाम हो।
स्मृतियों के पटल में, तुम ही आठों याम हो।।













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पंथ घिरे बाधाओं से
तूफ़ान प्रलय के अति फेरे
भींच हृदय ऐसा मंजर तू
भय को जो भयभीत करे
कि पुनःतिमिर न डरा पाए।।

शूल गड़े और चुभे उसे ?
नित नित प्रकाश जो फैलाए
तुम भी बन जाओ सूरज वो
शशि को प्रखरित कर जाए।

जितना गहरा समन्दर हो
गहराई अपने अन्दर हो।
हार- जीत तो, राह है साथी
तुम मांझी ऐसे बन जाओ,
न लहरें कभी डरा पाएं।।
- अवनि..✍️✨
०८/०४/२०२३





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मन के कानन में खिलकर हरी हरी डाली होना
जीवन के खेतों में मेरे बीज प्रीति का यूं बोना।

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हे सुनो !

तुम मेरे लिए
हमारी संस्कृति को अर्पित
लोकगीतों की खुशबू की तरह सरस,
पायस की तरह मीठे और पवित्र हो,
जो हमारी संस्कृति के परिचायक हैं
और मेरे लिए तुम
गगन के सितारों की भीनी- भीनी
रोशनी में सनी उजलाहट हो,
जिसे मेरा हृदय
हर खट्टे- मीठे दर्द से परे
महसूस करता हुआ
मन में छिपे अनुरागी मनके में
संजो लिया है।
जो शायद ही अस्तित्व विहीन हो,
इस सृष्टि में।।

जिसका
"आरंभ" तो है
"अन्त"
नहीं
अमिट संस्कृति
की तरह।। -अवनि..✍️✨



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एक दिन में वर्णन कैसे कर दूं।।

प्रेम तुम्हें दिखाऊं कैसे
शब्दों में समझाऊं कैसे
हृद ने ले ली माला तेरी
फिर दिवस विशेष बनाऊं कैसे।

उथल- पुथल भावों का मंजर
खिले हुए हैं सारे बंजर
नश्वर गात के तुम मांझी प्रिय
तेरी ईप्सा ले चल जैसे।।

कि मीन भई गहरे सागर की
बस मीरा गिरधर नागर की।
अमृत या अब दे हलाहल,
जीवित रहूंगी नाम के जैसे।।

वृहद वितान अंतर मन के
है जटिल प्रतीते खोलूं मनके
जब प्रत्येक दिवस तुम्हारा प्रियतम
एक दिन में वर्णन कैसे कर दूं।। -अवनि..✍️✨
१४/०२/२०२३




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