काँच की दीवार
काँच की दीवार में एक छोटी सी दरार थी…
लेकिन अब उसमें से रोशनी आने लगी थी।
पूरी कहानी अनुशीर्षक में...-
पर तेरी सोच से परे हूँ मैं...
चुपके से बैठा है कोई
भीड़ में भी एकांत सा,
शब्द नहीं, फिर भी बोलता है
आँखों में खामोशी लिए शांत सा।-
दिन की थकन और टूटे सपनों
की आरामगाह है रात,
जब हर शोर थम जाए,
और दिल की आवाज़ सुनाई दे साफ।
चाँदनी ओढ़े कुछ खामोश लम्हें,
जिनमें छिपे होते हैं कई अनकहे ग़म,
तकिए पर ठहरी ख्यालों के धागे,
बुनते हैं ख्वाबों का मूक आलम।
हर टिमटिमाता तारा गवाह बनता है,
किसी दिल के अधूरे अरमानों का,
और नींद की गलियों में कहीं
मुलाक़ात होती है पुराने फसानों से।
रात सिखा देती है मुस्कुराना भी,
आँसुओं के बाद जब थक जाए रूह,
उजाले से पहले की ये तन्हा घड़ी,
थमा जाती है दिल में सहर की नमी।-
"सब ठीक है..."
ये महज़ जवाब नहीं होता,
ये एक पर्दा होता है —
जिसके पीछे हम रोज़
थोड़ा और खुद से दूर हो जाते हैं।-
वहीं रह जाते हैं हम,
जहाँ अपने छूट जाते हैं।
वक़्त तो चलता है आगे,
हम पीछे छूट जाते हैं...
वहीं रह जाते हैं हम,
जहाँ सपने टूट जाते हैं।
चलती रहती है दुनिया,
हम ख़ुद से रूठ जाते हैं...-
मेरे हर एक शब्द में,
हर एक ख़ामोशी में,
आपकी यादें बसती हैं।
आपका अनुशासन, संयम और
आपकी सीख हर कदम पर साथ चलती है।
आपका आशीर्वाद ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है।
आपको श्रद्धांजलि पापा
सादर नमन...🙏-
आज कल नया नहीं कह पाता,
शायद मैं लिखना भूल गया हूँ
अब सजती नहीं महफ़िलें मेरी,
शायद मैं गुनगुनाना भूल गया हूँ।
गलबहियां डाले खड़ी तन्हाई
शायद मैं मुस्कुराना भूल गया हूँ।
नहीं आते कोई ख़्याल अनुराग
शायद मैं जीना भूल गया हूँ।-