अनुराग कश्यप ठाकुर   (खानाबदोश)
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Joined 11 February 2018


Joined 11 February 2018

नैना अश्क़ न हो।

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चाहते हो तुम अगर ,रावण जलाना छोड़ दो,
उससे पहले हाँ मगर, रावण बनाना छोड़ दो।

ना किसी भी वंश के सब,
वीर को मृत्यु संघारे।
ना कोई भी धर्म ज्ञाता,
पापियों के हठ से हारे।

ना कोई साम्राज्य उजड़े,
ना कहीं लंका दहन हो।
उससे पहले तय करो की,
ना कभी सीता हरण हो।।

जब तलक सीता को, धरती पर सताया जाएगा,
याद रखना तब तलक, रावण जलाया जाएगा।

अनुराग ठाकुर "खानाबदोश"

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यह देश भगत सिंह राणा का,
यह मणिकर्णिका नाना का।
यह है शुभाष की प्रखर ज्वार,
गाँधी के अहिंसा की पुकार।

यहाँ लाल बाल औ पाल कहें,
भारत माँ के हर लाल कहें।
अंग्रेजों को कर तड़ीपार,
मंगल पांडे का वह प्रहार ।

यह देश उन्हें भी याद करें,
आज़ाद थे जो आज़ाद रहें।
थे आयु से सदियों आगे,
वह बीर कुँवर सिंह याद रहे।

बिरसा मुंडा का उदित नाम,
हारा रानी को सत प्रणाम।
बेगम हज़रत की मर्दानी,
अंग्रेजों के मुँह की खानी।

जब हर दिल में आक्रोश भरा,
हर नगर एक कुरुक्षेत्र बना।
खूं से जलियां का बाग सना,
तब जा कर हिंदुस्तान बना।

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थोड़े थक से गए हैं।
दूसरे की ख्वाइशों को पूरा करने की कोशिश
करते-करते।
एक पूरी होने के तुरंत बाद दूसरी ख्वाइश और सब मेरी बेहतरी के लिए।
इन सब ख्वाइशों के पैरों तले अपने ख्वाइशों को कुचलते देख ।
थोड़े थक से गए हैं।
एक ही राह पे चलते-चलते जिसपे हमारे बड़े चले हैं या हमको चलाना चाहते हैं।
जहाँ हम उनके इशारों पे चलते जा रहें हैं उनकी संतुष्टि के लिए, बस बढ़ते जा रहे खुद अपने लिए बिना एक कदम चले।

थोड़े थक से गए हैं।
तुम्हारी यादों को पुरानी होने से बचाते-बचाते, बिना आवाज किए चीखते चिल्लाते-चिल्लाते।

थोड़े थक से गए हैं।
एकतरफ से रिश्ता निभाते-निभाते।
तुम्हारे मना करने के वावजूद तुम्हारे पास आते-आते।

थोड़े थक से गए हैं।
थोड़ा आराम करना चाहते हैं, सबके लिए जी कर अपने लिए मरना चाहते हैं।

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अक्सर जब रिश्ते बोझ लगे,
वो पाक घड़ी भी आती है।
जब सोंच समझ कर बातें हो,
फिर खुद दूरी बढ़ जाती है।

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प्रीत की कटार से मरा न अधमरा रहा,
तुम पुकारोगी कभी ये सोंचकर खड़ा रहा।

तेरे रूप को नयन की,
अँजुरी मैंने भर लिया।
प्रेम गर गुनाह है तो,
ये भी मैंने कर लिया।

ज़िंदगी के ख़्वाब सारे,
तेरे संग बुन लिए।
पढ़ सका न नियति को,
प्रेम जबसे पढ़ लिया।

ख़्वाब की जो टहनियाँ थी,सूखती हीं रह गई।
और नियति का ठूंठ डाल भी हरा रहा।
तुम पुकारोगी कभी..........................।

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फोन तुम्हारा आना जबसे बन्द हुआ है,
खालीपन से ज़्यादा सुकूँ मुझे लगता है।

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जहाँ तुमको बुलाया जा रहा है,
वहीं हमको भुलाया जा रहा है।
कहीं मैं ख़्वाब को पूरा न कर लूँ,
मुझे ज़बरन सुलाया जा रहा है।

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इतने सपने टूट गए अब सारी हसरत पूरी है,
इतनी रंग दिखादी दुनियां अब रंगों से दूरी है।

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जिंदगी के दाव कुछ मौषम से भी सीखा करें,
वक्त की जब मांग हो ख़ुद को बदलना चाहिए।

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