अनुराग चन्द्र मिश्रा   (©chanderअनुराग)
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Joined 27 January 2017


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Joined 27 January 2017



वैसे तो हर ज़िन्दगी अनमोल है,
फ़िर भी यहाँ लग ही जाता इसका मोल है,
इक आसमान है इक ही ज़मीन है,
कभी महफ़िल में कभी किसी हादसे में,
हर इक‌ ज़िन्दगी की बोली लगी है,
कैसी यह दुनियाँ है, किसकी जवाबदेही है,
शोहरत और दिखावे ने लगाई ज़ुबान पर कुंडी है,
कितनी ही महत्वाकांक्षाओं पर चढ़ी ज़िन्दगी की बली है,
ए ज़िन्दगी कैसी ये ज़िन्दगी ज़िन्दगी को मिली है,
यहाँ  ज़िन्दगी बस बेबसी से जूझ रही है|

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कितनी दूर चल पाएँगे हम,
या कहीं ख़ो जाएँगे हम,
ख़ुद को ना किसी को,
कहीं न मिल पाएँगे हम,
कि होता है कहीं ऐसा जहाँ,
किसी की आँखों में होता,
नहीं कोई टूटा सपना,
क्या कभी ख़ोज पाएँगे हम,
नहीं तो कहीं तो लौट जाएँगे हम|

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फ़िर से चाहने की हिमाकत कर लेते एक बार,
वक़्त का इक कतरा छूट गया था कहीं,
जीते जी उस कतरे में पल भर जी लेते एक बार|

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आजकल चिट्ठियाँ नहीं आती,
आजकल चिट्ठियाँ लिखी ही नहीं जाती,
लगता किसी गुज़रे जमाने का शब्द है,
चिट्ठियाँ चेहरों पर ले ही आती थी मुस्कान,
ग़म की, ख़ुशियों की आजकल,
अब इक पल वाली बहार नहीं आती,
अलमारी का एक कोना सूना पड़ा है,
कैसे भी वह जगह अब भर ही नहीं पाती,
दस्तावेज़ तो आते हैं, बस चिट्ठियाँ कहीं नहीं आती|

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"ख़ुशनसीब होते हैं ख़ुदखुशी कर लेते हैं,
बदनसीब होते हैं जो इश्क़ में शायरी करते हैं|"

पल पल मरते हैं रोज़ जीते हैं, कभी यादों के,
तो कभी ख़्वाहिशों के घरोंदें में खोए रहते हैं,
हर्फ़ दर हर्फ़ तराशते हैं तलाशते हैं इश्क़ को,
अधूरी सी ज़िंदगी अक्सर तलाशती है ज़िंदगी को,
कंग़ाल रहते हैं जो ज़िंदगी सुलझाया करते हैं|

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बेवजह झुंझलाहट है, बेवजह कड़वाहट है,
ग़र इश्क़ है तो इश्क़ से हर तरह की चाहत है|

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बदसुलूकी भी होती है तो,
वो नज़र अंदाज़ कर देते हैं,
बयां तो नहीं करते कभी भी कुछ भी,
वक़्त पर हम पर एहसान कर देते हैं,
इतनी सी है ज़िंदगी, ये सफ़र,
हर डगर होता नहीं मुकम्मल,
कुछ शख़्स होते हैं ख़ुदा की रहमत,
किसी शख़्स को मझधार पार करा देते हैं|

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भगवान है या नहीं, किसी ने जाना है, कोई अंजना है,
जीवन और मृत्यु इक चक्र है,
ये चक्र प्रकृति ने जल, थल और वायु हर जगह पाला है, 
भगवान है या नहीं, किसने पहचान है..?
जिसने जाना है इक नए शब्द से पुकारा है,
नियम और निर्देशों से बांधा है मनवाया है,
भगवान को इंसान ने क्या-क्या बनवाया है, 
भगवान से इंसान ने क्या-क्या कहलवाया है,
भगवान को इंसान ने नए-नए नाम से पुकारा है,
भगवान है या नहीं, कहाँ किसने पहचान है ?
प्रकृति है, जीवन है, इंसान को तबाह किए जाना है|

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इक कहानी सी है किससे कहें किसको सुनाएं,
अंजान रास्तों से घिरी दुनियां की दुनियादारी दस्तकारी,
दिन-ब-दिन बढ़ती उम्र की घटती ज़िंदगानी सी है|

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सुख की दुख से, दुख की सुख से,
यहां वहां फरमाइश तो नहीं है,
चाहतों का कोई मकां भी नहीं है,
कहीं पहुंचना भी नहीं है,
कहीं जाना भी तो नहीं है,
फिर भी चलना है, बढ़ना है,
कहीं भी रुक जाना भी तो नहीं है,
ज़िन्दगी के हाशिए पर कोई भी,
कहीं भी ठहर जाता भी तो नहीं है|

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