anupam shah   (अनुपम)
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Joined 21 January 2020


Joined 21 January 2020
16 JUN 2022 AT 0:44

Every enjoyed moment is creating something new.....Nothing grows in nothingness

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16 JUN 2022 AT 0:10

We all are researchers, researching our unique ways to do things...

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5 APR 2022 AT 20:50

हज़ारों कोशिशों के बाद हम मज़बूर होने हैं
न जाने ज़ख्म कितने और अब नासूर होने हैं

तुम्हारे नाम का तो ज़िक्र थोड़ा सा हुआ है बस
हमारे और भी किस्से अभी मशहूर होने हैं

ज़रा सी उलझनों में छोड़ देते हो जो राहें तुम
अभी तो मंज़िलों तक इम्तेहां भरपूर होने हैं

मिरे हालात भी अक्सर ये मुझसे पूछते हैं अब
तिरी तक़दीर के दिन कब तुझे मंज़ूर होने हैं

तुम्हारे बाद से घर मे उजाला भी नही आया
अँधेरे बस तुम्हारे नूर से ही दूर होने हैं

बदल जाएंगे चेहरे पर नही बदलेगी ये फितरत
ये कच्चे आम थोड़े वक़्त में अमचूर होने हैं

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4 APR 2022 AT 23:35

वही है आदमी तक़दीर वाला
जिसे दो वक्त का हासिल निवाला

तिरी क़ुरबत में खाये हैं यूँ धोखे
कि जैसे आसतीं में सांँप पाला

हमारी राह में ही आ गिरा फिर
वही पत्थर जो तबियत से उछाला

मुहब्बत बाद मेरे तुमने जो की
मेरा गुस्सा रक़ीबों पर निकाला

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30 SEP 2021 AT 19:35

है ख़त में लिख दिया अहवाल अच्छा,
जो बाकी और है फिलहाल अच्छा।

तुम्हे उजड़े दरख्तों की फ़िकर है,
है गर ऐसा तो मैं पामाल अच्छा।

ये मुझको क्या है जो तंग कर रहा है,
तुम्हारा तिल! तुम्हारा गाल! अच्छा!

यही इक झूठ बस बोला है तुमसे,
तुम्हारे बिन है मेरा हाल अच्छा।

अभी तक हूं चहकता याद करके,
ये जो गुज़रा है पिछला साल अच्छा।

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9 JUN 2021 AT 12:16

मोहब्बत की, वो गलियां, वो दरीचे, छोड़ आया हूं,
तेरी उतनी कमी खलती है, जितनी छोड़ आया हूं।

कराओ अब मिरी घर वापसी भी ओ जहां वालो,
ये मेरा इश्क़, मज़हब था मेरा, वो छोड़ आया हूं।

कफ़स में, जब रहोगे तुम, उजाले संग में होंगे,
चरागों को, तेरे हुजरे में, जलता छोड़ आया हूं।

उमर भर, सोचता रहता था, मैं अपने नसीबो को,
यहां पाया ही कितना है औ' कितना छोड़ आया हूं।

ज़फ़र गुमनाम हो जाओगे लिखकर दास्तां अपनी,
मैं दरया को, समंदर में ही, गिरता छोड़ आया हूं।

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9 JUN 2021 AT 6:45

आपको किस ओर रस्ते पर यूँ चलना चाहिए,
उसके पहले आपको घर से निकलना चाहिए।

हो न पाया इश्क़ गर तुमको मिरी जाँ अब तलक,
और, थोड़ा और, थोड़ा और, मिलना चहिए।

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8 JUN 2021 AT 20:26

जितने लिख लिखकर हम ज़ाया करते हैं,
इतने तो गम रोज़ कमाया करते हैं।

हंसते हैं हम पर, उलझाया करते हैं,
हमको कोई ख़ाब दिखाया करते हैं।

आसमान में तेरा चेहरा न पाकर,
घूंघट में है चाँद बताया करते हैं।

कहने वाले तो सावन घन कहते हैं,
हम आंखों से अश्क़ बहाया करते हैं।

तेरी यादों का इक मेला सजा के हम,
खालीपन को और सवाया करते हैं।

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8 JUN 2021 AT 9:21

'ज़फ़र!' लो जी गए तुम भी बिना मोहब्बत के,
"कि यूँ मर जाएंगे!" तुम भी तो बहुत कहते थे।

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6 JUN 2021 AT 19:41

अपनी अपनी, नज़रों से और, अपने ढंग से देखा है,
तुमने मछली, को भी शायद, पेड़ पे चढ़ते देखा है।

सुंदर उपवन, निरी छटा, औ' झरना बहते देखा है,
पत्थर को भी, इस दुनिया मे, दर्द से रोते देखा है।

कुछ रिश्ते, हो जाते हैं जो, दिल को बड़ा दुखाते हैं,
किसी दवा से, दर्द उठा हो, ऐसा भी तो देखा है।

दुनिया भर को, देखा तुमने, आस लगाई नज़रों से,
कारी कारी, अँखियों में, हम ने उजियारा देखा है।

हर इंसां को, जांचा परखा, न कर पाए भरोसा पर,
तेरे बाद में, क्या बतलायें, हमने क्या क्या देखा है।

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