शहर दर शहर
सुबह, शाम कभी दोपहर
धुंध, धूप या बदन तरबतर
मैं, तुम,आप,वो सबसे इतर
एक उम्मीद ढोते और इस कदर
हॉर्न, शोर, चीख, से कस के कमर
राहत, रिश्ते, मोहब्बत से बेखबर
चल रहा है एक आवाक सफर
कभी उसके घर, कभी इसके घर
ख़्वाब, जज़्बात, सहूलत की कत्ल कर
राब्ता सिर्फ़ दर्द से
रकीब को ये पैगाम कर
टूटने तक सब कुछ है बचा हुवा
जब टूट गया तो फिर क्या हुआ
एक बात चलो ये जानकर
गर कोई ख़ामोश है
वो अभिशप्त है या फिर तूफ़ान है
#AM
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जिद को राहत मिल जाए, ऐसा तो हो
कोई राहगीर तो मंजिल पहुँचे, ऐसा तो हो
बोझिल मन में एक ठंडी हवाएं बहुत है
या फिर खाक ही कर दो, ऐसा तो हो
या ख़ुदा नींद में मेरे पुरखे आ रहे है
अब अज़ीयत से बेदार ही कर दो, ऐसा तो हो
रंज-ऐ-दिल काफ़ी है तुझसे वास्ता तोड़ने को
या इश्क़ को महफ़ूज कर दो, ऐसा तो हो
मुझसे बातें न करो, न कोई राब्ता रखो
या समेट लो मुझको ख़ुद में, ऐसा तो हो
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बात नही करते मुझसे क्यों
नाराजगी जाहिर नही करते मुझसे क्यों
संगे दिल ओर भी हो गए है शायद
वरना इज़हार-ऐ- इश्क़ नही करते मुझसे क्यों-
हम अक्सर उसी से प्यार करते है
जो किसी ओर से प्यार करते है
दिल को भी बददुआ है किसी का
वरना दिल उसी से क्यों प्यार करते है-
मैं यहाँ आसक्त खड़ा हूँ
तू वहाँ भय में खड़ी है
आखेट होते जिंदगी में
टूटते हर पुराने मकाँ के मलबे में
द्वंद विमुक्त कब हो सकूंगा
तू आजाद रह ये तो मैं देख सकूंगा!
ये ज़माने खुद के लिए है
ये अंकुशे सारी नैतिकता का पाठ है
जो इन्हें तोड़ेगा यहाँ
बदचलन, बेदखल हो जाएगा
चूड़िया बिंदी भी अगर जंजीर हो
दुपट्टे में कही छुपती हो तुम्हारी अक्स
दामन तोड़ के ही मिल रहा हो अभिब्यक्ति
न तू एक पल भयभीत हो
इस ज़माने में तुम्हारा जीत हो
द्वन्द विमुक्त कब हो सकूंगा
तू आजाद रह ये तो मैं देख सकूंगा!
तुम कब सहानुभूति के पात्र थे
तुम बराबर के ही पात्र थे
ये जो विस्मय है लोग, जो चीख रहे है
खो रहे स्वामित्व अपना
दर्द तो भला बहुत बड़ा है
लेकिन किंचित न पथ तुम मोड़ लेना
खुद के अवशेष से इतिहास खोल देना
हाँ, मगर ये युद्ध नही है
यहाँ कोई रणभूमि नही है
कर्तब्य को ही ब्याध कर
तुमको है चिरंजीवी होना ।-
अजीब बात है कि मैं तुम्हे चाहता हूँ
एक ख्वाब चाहता हूँ एक जवाब चाहता हूँ
अजीज है जुस्तजू लेकिन तोहमतें कई है
सूखे सजर से जैसे हिजाब चाहता हूँ
मय्यत पर रोने की रिवायत फिजूल है
साथ रो सके मेरे कोई ये कमाल चाहता हूँ
बात अब इश्क़ की नही जिंदगी की है सो
मायूसी की अब्र में एक जमाल चाहता हूँ
रिश्ते वजह चाहती है साथ निभाने के
कोई यूँ भी तो साथ दे ये ख्याल चाहता हूँ
ये तन्हाई ये उदासी ये अकेलापन
कमाल है मैं अब भी तुम्हे चाहता हूँ
#अनुज_मिश्रा
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फूल थे जब शजर में थे
अब राहगीरों के कदमो के नीचे क्या
समंदर से मिलने की ख्वाइश थी
अब रेगज़ारो के आँचल के नीचे क्या
किसान से कामगार बन गए है
अब कामगारों के क़त्ल के नीचे क्या
जो बात दफ़्न थी, खुल रहे है
अब पैरोकार के दलीलों के नीचे क्या
ये दुनिया नायाब होने का भ्रम टूटेंगे
अब साहूकारों के तिजारत के नीचे क्या-
जिस पथ को सरल समझा वो कठिन पाया
जिस पथ को कठिन वो निर्मल सा
फूलों पर चलकर भी बैचेनी
और कांटो पर चलकर आत्मसंतोष,
जिसे देवदूत समझ कर आदर्श बनाया
उनके कर्म वचन के सहर्ष विलोम
जिसे समझा भार स्वरुप धरा की
वो कालिदास बन चराचर है ब्योम,
रंगमंच पर जिसे नायक माना
उसे अंत में खलनायक पाया
नाटक में जिस गाथा का हो रहा विजय-गान
मानो लाशो पर हो रहा करुण क्रंदन
पौरुषता से गर खुद का अस्तित्व बनाया
फिर ये विलाप क्यों करे मस्तक का चंदन,
क्षोभ भर गया शायद
देख रहा दुर्योधन सा क़िकर्तब्यविमूढ़
जीवन द्रौपदी सी मुस्कुरा रही मुझपर
कैसे संभाले कोई अपना भी कृतंघ्न स्वरुप,
संभल तो जाता हूँ
पर एक घाव सा चुभता है-
मुजरिम वो नही जो बेवफाइ करता है
मुजरिम वो है जो वफ़ा की दावेदारी करता है।
गुलशने गुल से रहते है गुलजार माना,
मगर कांटे ही है जो पहरेदारी करता है।
जिनके रातिब में है शामिल खून-ऐ-इंशा,
वो जाने कैसे मुल्क से ईमानदारी करता है।
ग़ौर फरमाये जरा अपने रहनुमाओ पे,
न जाने वो किसका तरफदारी करता है।
वो जिनके ऐब बताते थे वो फ़रिश्ते हो गए,
अब बस वो खुद का इश्तहारदारी करता है।
गर्दबाद सी शाम है कोई तूफाँ आया था क्या,
मुस्कुराते देखा अभी जो दर्द की जमींदारी करता है।-
खुदा ने एक समंदर मेरे आँखो में भी बनाया है,
जब भी डूबता हूँ एक नया खजाना साथ होता है।-