अनुभव मिश्रा  
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Joined 13 December 2017


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Joined 13 December 2017

एक समय पर हमने, सब कुछ संभव होते देखा है,
एक समय पर सब कुछ, आपे से बाहर होते देखा है।
एक समय जिस आंगन में खुशियां हमने फैलाई थी,
आज उसी आंगन में हमने, सन्नाटा होते देखा है।

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दूर हम अहसास,सभी लेकर आए है।
था जो निकट,उससे बड़ी दूर आए है।
प्रेम था,कि भाव था,या सिर्फ कल्पना।
जो कुछ रहा, तुम्हारे निकट छोड़ आए है।

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प्रेम था एहसास जो, वह तुम्हें जी भर मिला है।
मैंने दिया या किसी और ने, तुम ही बताओ क्या फर्क पड़ रहा है?
निर्णय जो मध्य अपने लिया था, क्या दोनों को संबल दे रहा है?
दूर क्यों उदास बैठी,क्या कुछ गलत सा लग रहा है?
सब कुछ तो वैसा हो रहा है ,जो कुछ तुम्हारी आंखों में था।
मैंने किया या किसी और ने, तुम ही बताओ क्या फर्क पड़ रहा है?

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चार आंखों ने मिल कर सपने देखें,देखें खूब नज़ारे,
जैसे - जैसे धूमिल हुआ सब,आंखे भी हुई दो किनारे।

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समय ने भी, क्या समय चुना है।
न तुम्हें छोड़ सकते है,न तुम्हें पा सकते है।।

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कहने को तो क्या है, कि एक किनारे आ खड़े हैं!
पास आओ ,तो झाकों तुम, तब जानो क्या खाक खड़े हैं!

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नयनों ने स्वीकृति दे दी है, इस जनम नहीं है साथ यहाँ।
सारे सपनें टूट कर रह गए है, कहाँ बटोरूँ इनको यहाँ।
खूब मनाया मन को हमने, तब जाकर है बात बनी।
सच कहता हूंँ, हम काँपे अंतर मन से, जब वियोग की बात कही।

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हर एक प्रश्न का उत्तर ,दिया जाएगा,
तुम कहो गलत,सर झुकया जाएगा।
इस सल्तनत के हम ,अब राजा नहीं,
जैसे कहो,वैसे किनारा किया जाएगा।

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खैर चलो जाओ तुम,नई दुनिया का आमंत्रण स्वीकार करो,
सब कुछ तुम्हारे इंतजार में ही है,जाओ खुल कर राज करो,
हमारा किया तुम एक था,और तुम तक ही सीमट रह जायेगा।
अच्छा तो तुम जा रहे हो क्या ? कब सोचा था फर्क पड़ेगा।

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तेरा आना आकर जाना, कब सोचा था फर्क पड़ेगा।
एक दूजे को गले लगाना, कब सोचा था फर्क पड़ेगा।।
आँख मूंद कर मैंने दुनियाँ तुमपे ही सीमित कर डाली
फिरसे खुद को तनहा पाना ,कब सोचा था फर्क पड़ेगा।

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