Anubhav Siddhu   (अनुभव)
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Joined 5 March 2018


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15 AUG 2020 AT 22:38

तेरे नाम के बंगले पे गुज़ारा हर दिन,
तेरी यादों के लम्हों में सिसका हर दिन।

वो कहते हैं समय गवां दिया तेरे नाम पे,
मैंने तो पल-पल को तेरा बनाया हर दिन।

देरी की आदत सो पीछे रह जाता हूँ मैं,
फिर भी चाहने वालों में ख़ास नज़र आया हर दिन।

सब कहते है बुलाने पर जाने का नहीं,
मैं तेरी इक झलक से दौड़ चला आया हर दिन।

इक दूजे बिन पूरे ना हो सकेंगे,
मेरी छाप तिरे दिल में छोड़ आया हर दिन।

आखिर पलों में बात दीन-ओ-ईमान की करते हैं,
मैंने तिरे नाम का जाप कर बिताया हर दिन।

'अनुभव' चाह ऐसी मुक़द्दस ले आया दिल में,
इकतरफा ही मुकम्मल कर आया हर दिन।।

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15 JUN 2020 AT 9:52

बीहड़ सा जीवन है जी,
बीहड़ सो है काम,
बीहड़ में ही सांसें चल री,
बीहड़ में जी नाम।

मट्टी की है दुनिया सबकी,
कौन ख़ास कौन आम,
मट्टी में मिटता जग है जी,
मट्टी में सबको नाम।
कौन पराया, कौन है अपना,
सबके जी में यो ही झोल,
धुल में मिलगे सारे हैं जी,
न रहा कोई अनमोल।
मट्टी से ही सारे उपजे,
फिर काहे का भेद,
नाम, जन्म और काम जहां हैं,
केवल दिल का छेद।
ढाई आखर खूब ही भावे,
बिन देख उंडेलो जाओ,
'भक्षी पे भी यूँ ही बरसे,
जो पाए बदल मन जाओ।

बीहड़ सा जीवन है जी,
बीहड़ सो है काम,
बीहड़ में ही सांसें चल री,
बीहड़ में जी नाम।

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25 FEB 2020 AT 9:59

जलते शहर को देख चुप हो, तो मुर्दा हो तुम।
इंसां को मरते देख खुश हो, तो मुर्दा हो तुम।

लंबी दाढ़ी से टपकते खून को देख,
बुझाते हो प्यास अपनी, तो मुर्दा हो तुम।

सफ़ेद टोपी को ज़मीं पे रेंगते देख,
बुज़दिली का गाते हो गीत, तो मुर्दा हो तुम।

इंक़लाब की मशाल को बुझता देख,
जलाते हो दिये तुम, तो मुर्दा हो तुम।

जलते शहर के धुएं को देख,
उसके नशे में चूर हो तुम, तो मुर्दा हो तुम।

सरेआम ज़ुल्म-ओ-साजिश को देख,
जो खामोश हो तुम, तो बस मुर्दा हो तुम।

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12 FEB 2020 AT 23:38

कश्मकश दिल की ज़ाहिर करता हूँ,
तेरी पलकों की छांव में रहता हूँ।

तेरी मुस्कराहट की रौशनी से सुबह खिलती है,
तू कहे तो दिन से चांदनी मिलती है।

चांदनी भी शर्माती तेरे नूर से,
सादगी ही समाती तेरे हूर से।

तेरी ख़ामोशी में हर्फ़ ढूँढता हूँ,
बोलते लबों पे ख़ामोशी चूमता हूँ।।

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19 JAN 2020 AT 23:53

एक शोर है,
हां, एक शोर है जहाँ में,
कई बातें कहता है ये मुझसे,
बस शोर सा लगता है।
एक शोर है,
मेरे ज़हन का हरेक कतरा,
मदहोश है इसमें,
बस सब धुंधला सा लगता है।
एक शोर है,
जहाँ भी देखूँ वो सुनाई पड़ता है,
कुछ बोलना चाहता है मुझसे,
बस नासमझ सा लगता है।
एक शोर है,
तुम्हारी आँखों में दिखता है,
खींच के अपनी गहराईओं में ले जाता है,
बस डर सा लगता है।
एक शोर है,
तुम्हारी ज़ुबाँ से बहता है,..........

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11 DEC 2019 AT 13:06

दिलों की चिंगारी को जलाना ज़रूरी है,
क़ायम शमा-ए-इंसानियत रखना ज़रूरी है।

सदियों से मुंतज़िर हूँ उस पल के आने का,
जन्नत को ज़मीं पे अब लाना ज़रूरी है।

आवाम से माँगा है सबूत उनके वजूद का,
फ़रमान-ए-ज़ुल्म को जलाना ज़रूरी है।

दीन और ईमान की सदाक़त है ये,
मुमकिन है सुनके उसे घबराना ज़रूरी है।

हुंकार है ये आवाम की, सुगबुगाहट नहीं,
मकानात की जगह बनाना उसे तैखाना ज़रूरी है।

ये देश है इंक़लाब-ओ-जम्हूरियत का 'अनुभव',
हाकिम को ये एहसास अब दिलाना ज़रूरी है।

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1 DEC 2019 AT 23:53

सिखाने खुदा को खुदाई चला मैं,
भरने पत्थर में अश्क़ चला मैं।

इंसानियत को भूल जब खून सवार हुआ,
रंगों में भी मज़हब देख चला मैं।

आँखों में झाँका जो इंसां के मैंने,
नफरत के तले खुदा देख हैरां हुआ मैं।

अल्लाह निर्गुण को खोजते रहा तू 'अनुभव',
तसव्वुफ़ के इश्क़ में छुपा मिला मैं।।

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2 NOV 2019 AT 20:27

ये झूठ अब सच होने लगे हैं,
हाँ, आँख पर पट्टी बांध सब जीने लगे हैं।

सच को सच्चाई से नहीं, अब झूठ की जीत से आँका जायेगा,
चाहे बहें अब खून किसी के, झूठ-सच तो अब चुनाव ही बता पायेगा।

आपके ज़मीर पर किसी के लहु का रंग चढ़ता नहीं,
यहाँ तो सब मुर्दा हैं जी, ज़िन्दा तो कोई लगता नहीं।

अख़लाक़ मुस्लिम सुबोध हिन्दू, क़त्ल मगर इंसानियत का है,
जो ये भी न समझ सको तुम, तो हर शहीद आज शर्मिंदा है।

हर इमरजेंसी, हर क़त्ल-ए-आम, आज सही हो गया,
चुनाव ही है पैमाना अगर, तो हिटलर भी अब इंसानी हो गया।

अगर किसी का राम तबरेज़ की मौत से, है खुश भी ज़रा सा हुआ,
तो हर पल के लिए मेरे ज़हन से,है उसका नाम भी मिट सा गया।

कहो चाहे धर्म-विरोधी, देश-विरोधी, नहीं किसी का मलाल,
चुप नहीं मैं हो सकता, किसी तानाशाह का बनके दलाल।

कोई हुकूमत नहीं है मेरी या किसी की माई बाप,
समझना तो तुम्हे भी होगा, ये हैं बस इंसानी पाप।

अब और ना मुझे कुछ है कहना, ना पत्थर दिलों में दर्द भर सकता हूँ,
तुम यूँ ही बस भक्ति में रहना, मैं सच और इंसानियत के लिए बस लड़ सकता हूँ।।

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16 OCT 2019 AT 9:51

दीवारें कुछ आज लहराई जा रही हैं,
ज़मीं किसी की खिसकाई जा रही है।

लगता है बुनियाद हिलेंगी ज़ालिम की,
साँसें अब उसकी कुछ सहमी जा रही हैं।

लाख़ ज़ंजीरें बाँध ले ख़यालों पे,
ख़यालों से फिर भी गद्दी सरकी जा रही है।

रुको, चिंगारी सी उठी है कई दिलों में,
हाय अल्लाह! ये नफ़रत की आग फिर जलायी जा रही है।

कोहराम है कराना और मलहम भी लगाना,
सीखी हुई तालीम उसके बस यहीं जा रही है।

नयी तरकीबें जो बुनी हैं उसने,
धुहें की आड़ में अब झूठी खबर फैलायी जा रही हैं।

पर मायूस न हो मेरे यार तुम,
इंक़लाब की शमा फिर जलायी जा रही है।

मुट्ठी भर लोगों को अब मुट्ठी बनना होगा,
जंग की आखिरी घड़ी जो अब आ रही है।

बातिल से लोहा लेने को अब चट्टान बनना होगा,
जो अब भी न उठे, तो आज़ादी ख़त्म होने जा रही है।

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3 OCT 2019 AT 12:37

नयी जगह है, नयी हवा है,
चलो आज कुछ साज़िश करते हैं।
तुमसे मिलते हैं और बिछड़ते हैं,
चलो आज एक नयी कहानी लिखते हैं।
दोस्ती के नाम पे इश्क़ करते हैं,
चलो आज एक दर्द बयां करते हैं।
चांदनी चौक की गलियों में कुछ फुसफुसाते हैं,
चलो आज कुछ सरेआम करते हैं।
जो न हो तुम में इश्क़ का हौसला,
चलो फिर हम कहीं और चलते हैं।
उम्मीदें जो टूटें हमारी यहाँ से,
चलो कहीं और का दामन पकड़ते हैं।
मन बदले तो फिर नयी जगह पे मिलना,
चलो फिर से हम एक अजनबी बनते हैं।
फिर रूबरू होते हैं, फिर गुफ़्तगू करते हैं,
चलो आज फिर दोस्ती करते हैं।
ना हो ताल्लुकात चाहे जन्मों जन्मों का,
चलो इस पल मोहब्बत करते हैं।।

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