Anubhav Gupta   (~ìts Äñû)
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Joined 4 November 2018


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21 MAY AT 22:31

कहीं भटका हो मन तो दवा कीजिए,
पर अटका हो मन तो बस दुआ कीजिए।

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18 MAY AT 20:31

इस क़दर मिला था किसी से,
अब किसी और का मिलना रास नहीं आता।

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16 MAY AT 21:40

लाख़ हो सबर और करम पाकीज़ा
मयस्सर मुकद्दर नहीं तो बेसबब ज़ीस्त।
गुल ग़ुलशन और बहार–ए–फिज़ा
क़िस्मत–ए–बद तो ख़िज़ा गुलिस्तां।।

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11 MAY AT 22:31

इस क़दर चढ़ा तेरे नाम का प्रेम रोग।
अब क्या दुनियाँ, कौन हैं चार लोग।।

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4 MAY AT 0:55

कुछ टूट सा गया है
कहीं कुछ तो था, जो छूट गया है
कोई था अपना, जाने क्यों अब रूठ गया है।
बहुत कहानियां थीं, प्यारी सी तुम्हें सुनाने को
तुम्हारे संग गुनगुनाने को।
तुम जो रुठो तो, तुम्हें मनाने को
कुछ था दिल में, तुम्हें दिखाने को।
तुम्हारें संग सुहाने सफ़र पर जाने को,
तुम्हें अपनी आंखों से दुनिया दिखाने को।
तुम्हें सजाने को, सपने तुम्हारें पूरा कराने को
तुम पर अपना सब कुछ लुटाने को।
खैर!!!
शायद अब बस बचा है
इन्हीं ख्यालों में खो जाने को
तुम्हारें ख्वाबों में, फ़ना हो जाने को
तस्वीरों में तुम्हारी गुम हो जाने को।
तुमसे होकर आने वाली हवा में बह जाने को
तुम्हारी याद में रह जाने को,
सुनो! बस अब आँसू बह जाने दो।

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30 APR AT 0:53

अभी एक मुलाक़ात बाकी है
कैसे मौत गले लगाऊं
अभी शायद एक आस बाकी है
जीना तो कब का छोड़ दिया
बस जिस्म में सांस बाकी है

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28 APR AT 1:12

सीने में दिल रहा ही नहीं
आँसू बहाने को बचा है क्या,

इश्क़ जो अधूरा रह गया
फ़िर कोई जिया है क्या,

महफ़िल में लोग पूछते हैं
कहो! कुछ हुआ है क्या।

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14 APR AT 1:04

लेकर बोझ अपनी लाश का, भटकता रहूंगा इधर उधर।
कभी फ़ुर्सत मिले तो, चिता को आग दे जाना।।

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23 SEP 2024 AT 21:04

जितनी दफा कहा है मैंने, की समझ गया हूं सब
तूने हक़ से जो पूछा होता, तो देख पाती
कितना हूं मैं "नासमझ"

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16 SEP 2024 AT 19:39

त्याग देती है स्त्री, अपना घर, परिवार, मित्र
पीछे छोड़ देती है, अपनी खुशियां, अपनी इच्छाऐं
भुला देती है अपना अस्तित्व,
लुटा देती है अपना सर्वस्व
मात्र अपने पुरुष की खुशी के लिए,
बारी जब कुछ पाने की आती है
तो सुनती है, मैं "पुरुष" हूं।

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