अंतः अस्ति प्रारंभः   (#♥️✍️पु s पे n द् ✍️♥#)
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Bio Under Process...📍
Joined 13 October 2019


Bio Under Process...📍
Joined 13 October 2019

हिफ़ाज़त के जज़्बात को तुम क्या समझोगे,
जो दर्द छुपा है, वो अल्फ़ाज़ में कहाँ बयाँ होगा।

मैंने चुपके से दुआओं में तेरा नाम लिखा था,
और तूने समझा ये फ़िज़ूल सा कोई एहसान होगा।

तेरे लिए धूप में साया बनकर चला मैं,
तू सोचता रहा, ये मेरा कोई गुमान होगा।

हर ख़त में तेरा ज़िक्र, हर पल में तेरी परछाईं,
और तू समझा ये महज़ एक पुराना अफ़साना होगा।

मैंने जो रातें जागकर तुझ पर वक़्फ़ की थीं,
वो मेरी मोहब्बत की नहीं, हिफ़ाज़त की निगरानी थी।

पर तूने सोचा, शायद ये कोई दीवानगी होगी,
या फिर कोई अधूरी कहानी थी।

हिफ़ाज़त का ये जज़्बा ना सौदागरी करता है,
ये वो पर्दा है जो आँधी में भी परचम थामे रखता है।

पर जिसे सिर्फ़ चाहा गया हो दूर से,
वो क्या जाने कौन-सी आग सीने में पलती है...

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छांव बन के जलते सूरज को भी सह लिया,
पापा से सीखा खुद को पीछे रख कर जीना...

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चूड़ियाँ बयां करती हैं, वो खामोश दास्तानें,
जो लब नहीं कह पाए, पर दिल में थीं थकानें।

हर खनक में लिपटा है इक वादा अधूरा सा,
हर रंग में छुपा है एक मौसम टूटा-सा।

कभी हँसी की बूँदों में ये छनकती थीं सुबह-साँझ,
अब ख़ामोशी ओढ़े बैठी हैं, जैसे थम गया हर राग।

फलानी जब कंगन पहनती थी इश्क़ में भीगकर,
फलाना उसे देख मुस्कुरा देता था चुप रहकर।

अब दोनों के हाथों में है वक़्त की राख सी,
चूड़ियाँ आज भी बोलती हैं, मगर आवाज़ें हैं ख़ाक सी।

ये बयां करती हैं हर रिश्ता जो कांपते दिल से बंधा कि महिलाओं,
की दुनिया का संगीत, इन्हीं से शुरू, इन्हीं पर खत्म हुआ...

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पापा से सीखा ख़ामोश रहकर बोलना, दर्द की तपिश में भी मुस्कुरा के डोलना,
सीखा उनके काँधे से बोझ उठाना, हर रिश्ते को अपने हिस्से में निभाना।

वो रातें जो आँखों से जागीं थीं चुपचाप, सीखा पापा से चिन्ता भी हो, रहो आप,
सीखा वक़्त को कमीज़ बना पहनना, और हौसलों की आस्तीनें लम्बी रखना।

पैसे से नहीं, उस पसीने से मोहब्बत की, जिसमें घर नहीं, एक जन्नत सी बनती थी,
नज़रें नीची, मगर इरादे आसमान से ऊँचे, सीखा झुकना कभी कमज़ोरी नहीं होती।

कभी माँ के लिए दो चूड़ियाँ बिना कहे लाना, सीखा इश्क़ हर दिन जताया नहीं जाता,
पापा, आपसे सिर्फ़ चलना नहीं सीखा हमने, सीखा ज़िन्दगी को सर उठा के समाज में जीना।

पापा से सीखा माथे की शिकन में भी सुकून रखना, ख़ुद भूखे रहकर भी घर में चूल्हा की लव जलाना,
सीखा कि रोशनी सिर्फ़ बिजली से नहीं आती, पापा की मौजूदगी भी कम नहीं थी चाँदनी से।

उनके जूतों में चलकर जाना सफ़र कैसे निभाना है, सीखा सच कहना भले भारी हो, मगर झूठ मत छुपाना है,
जेब खाली हो, तब भी सीना तान के जीना, सीखा इज़्ज़त कमाई जाती है, माँगी नहीं जाती।

पापा की आँखें कह देती थीं वो सब, जो लफ़्ज़ों से हम कभी कह न पाए,
उनके साए में सीखा, कि मर्द वो नहीं जो गरजता है, मर्द वो है जो टूटकर भी सबको संभालता है...

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जो कभी पूरी नहीं हुई हसरतें,
वो दिल के तहख़ानों में चुपचाप रोती हैं,
जैसे टूटे हुए ख़्वाबों की किरचें,
हर रात पलकों पे सोती हैं।

वो बातें जो लबों से कह न सके,
जिन्हें वक़्त की गर्द में दफ़्न किया,
वो आज भी साँसों में ज़िंदा हैं,
जैसे कोई नाम अधूरा लिखा।

जो बारिशें तुझसे मिलने को आई थीं,
वो मौसम भी अब रूठे रहते हैं,
इन पत्तों पर नमी सी रहती है,
जैसे अश्क़ हवाओं में बहते हैं।

हमने चाहा था वो सितारा बन जाए,
जो कभी झिलमिलाई थी तन्हा गगन में,
पर तक़दीर की स्याही से मिट गई वो रौशनी,
जो पलटी न फिर कभी इस जीवन में।

हसरतें अब सज़ा बन चुकी हैं शायद,
इन्हें पूरा करने की ख्वाहिश भी मर चुकी,
मगर दिल है कि अब भी चुपके से पूछता है।
"क्या अधूरा रह जाना ही है असल ज़िन्दगी...?

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अब ना वो समोसे रहे, ना वो बातों के दौर,
अब तो "चा❤️य" भी ख़ामोश लगती है हर ओर...

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काश तुम समझ पाते, कि ख़ामोशी की भी आवाज़ होती है,
हर मुस्कान के पीछे, एक टूट चुकी आवाज़ होती है।

काश तुम पढ़ पाते, मेरे लफ़्ज़ों की अदबी दरारें,
जहाँ हर हरफ़ में बसी थीं तेरे नाम की पुकारें।

तेरे लौट आने की उम्मीद में मैंने वक़्त को थामा था,
हर लम्हा तेरे हिस्से का अपने हिस्से में जमा किया था।

काश तुम जान पाते, कि इश्क़ महज़ मिलना नहीं होता,
कभी-कभी जुदाई में भी रूह ताउम्र वफ़ा निभाती है।

तेरे कहे हुए अल्फ़ाज़, अब भी हवाओं से लड़ते हैं,
और मेरा दिल हर रात, तुझे चुपचाप पढ़ते हैं।

काश तुम समझ पाते, कि मोहब्बत सिर्फ़ हक़ नहीं माँगती,
वो तो बस इक महसूस करने वाली ख़ूबसूरत ख़ामोशी होती है...

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हँसते लब हैं जैसे कोई पर्दा हो तक़लीफ़ों का,
हर जोक में छुपा है इक अफ़साना तन्हाइयों का।

आँखें मगर चुप नहीं, रोज़ कुछ बहा लाती हैं,
कभी ख्वाबों की राख, कभी वादों की राखी सी बातें लाती हैं।

लबों पर खिलती है दुनिया के लिए हँसी,
भीतर कोई टूटा हुआ शीशा चुभता है हर घड़ी।

जिसे लोग समझते हैं मज़ाक़, वो इक फ़रियाद होती है,
जो हँसी बिखरी दिखती है, दरअसल साज़िश-ए-बरबादी होती है।

कितना अजीब है ये खेल जज़्बातों का,
लब हँसते हैं क्योंकि आँखों को रोना आता है ख़ूब।

हमने सीखा है मुस्कराना हर दर्द छुपाने में,
वरना कोई पूछता नहीं आंखें भीग जाने में...

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तेरी एक मुस्कुराहट पे जब सवेरा होता है,
फलाना का हर ज़ख़्म फिर से हरा होता है।
किस्मत के काग़ज़ जलें या दुनिया ताने मारे,
फलानी की हँसी में सब कुछ सवारा होता है।

वो जब हल्के से होंठों को मोड़ लेती है,
जैसे अमावस की रात में चाँद झाँक लेती है।
फलाना सोचता है क्या यही खुदा की पहचान है...?
जो आँखों में उतरती नहीं, पर दिल में जान है।

तेरी एक मुस्कुराहट की खातिर,
फलाना ने वक़्त की धड़कनें भी गिरवी रख दीं।
शेर-ओ-सनम, ख्वाब-ओ-ग़ज़ल सब छोड़ आया,
जब फलानी की मुस्कान में जन्नत दिखती रही।

किताबें तो सबने पढ़ी हैं मोहब्बत की,
पर फलाना ने तेरी हँसी को इबादत बना लिया।
दुआएं भी खुद हैरान हैं, कि किस सुकून से,
फलानी की मुस्कान ने तसब्बुर सजा लिया...

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हर बात पे तहज़ीब का दावा किए गए,
और हम ही हर बार "तज़लील" लिए गए।

तू इश्क़ था, या इक सियासी तजुर्बा,
हम बस तेरे फ़ैसले में जलील किए गए।

हम जिनकी मोहब्बत पे सजदे किए बहुत,
वो ही हमें भीड़ में ज़लील किए गए।

क़ातिल भी वही, अदालत भी उसी की थी,
हम बेगुनाह थे, फिर भी दलील लिए गए।

चेहरे पे मुस्कान, दिल में शरारतें,
इक ख़ास तरीक़े से क़तील किए गए।

अब रूह पे पहरा है, जज़्बात ख़ामोश हैं,
हम आइनों से भी बदसलीक़ किए गए...

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