ध्यान मेरा उसने फिर यूं भी हटाना ठीक समझा
था बहुत मसरूफ़ सो ज़ुल्फ़ें गिराना ठीक समझा
नज़रें उनकी बारहा हम पर ही आकर टिक रही थी
बस तो हमने नज़रों से नज़रें मिलाना ठीक समझा
उनकी यादें जान ही ले लेती मेरी भूख से फिर
अक्ल ने घंटी बजाई खाना खाना ठीक समझा
ज़िन्दगी ने आगे बढ़कर ख़ुद गले उसको लगाया
मुश्किलों के आगे जिसने मुस्कुराना ठीक समझा
मेरी आँखों में मुसलसल एक पत्थर टिक गया क्यूँ
आंसुओं के रस्ते ही उसको बहाना ठीक समझा
रोने वाला ही समझता है क्या कीमत इक हंसी की
मसख़रे ने दूसरों को यूँ हँसाना ठीक समझा
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मैं कुछ भी नहीं हूँ ऐ ज़िन्दगी
जब तक ... read more
सर्द आहें, दर्द, आँसू, सिसकियों की बद्दुआ
इश्क़ को फिर यूँ लगी कुछ हिचकियों की बद्दुआ
ज़ख़्म देकर ज़िन्दगी को, रंग ख़ुद से छीने हैं
जाओ भी तुम को लगेगी तितलियों की बद्दुआ
पेड़ काटे और बेघर यूँ किए कितने ही फिर
मेरा मरना है फ़क़त उन पंछियों की बद्दुआ
मोल कैसे जाने जिसको मिल गया सब मुफ्त ही
नाख़ुदा का डूबना...? थी कश्तियों की बद्दुआ
काम सारे करता देखो कोसते फिर भी सभी
मोबाइल को भी लगी है चिट्ठियों की बद्दुआ-
काव्य विधा में विचार
किसी देह कि भांति हैं
अलंकार, उपमाएं
विभिन्न विधाएँ
एवम
उनके व्याकरण
केवल
श्रृंगार है इस देह का
जो करते हैं वृद्धि
इसके
सौंदर्य,रूप, यौवन में
निखारते हैं इसका रूप
परन्तु अति आवश्यक है
स्मरण रखना
कि
श्रृंगार के बिना
देह का अस्तित्व सम्भव है
परन्तु
देह के बिना
श्रृंगार का अपना
कोई अस्तित्व नहीं-
बूढ़े शजर को जीते जी किसी ने पानी न पूछा
लो बाद मरने के लकड़ियों के दावेदार आ गए-
हलक का निवाला भी हलक में ही रह गया जब इक बच्चे को कूड़े के ढेर से रोटी उठाते देखा😧😢
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मेरे बस में नहीं तूफ़ान मेरा
मेरे हाथों हुआ नुकसान मेरा
मैं दिल की बातों में नहीं आ सकूँगा
दिमाग़ ने रख रखा है ध्यान मेरा
हज़ारों ख़ुदकुशी पर शेर कह दूं
मगर मरना कहाँ आसान मेरा
बड़ा टेढ़ा चला हूँ ज़िन्दगी पे
कटेगा जल्द ही चालान मेरा
मैं मरते दम दुआएँ दे रहा था
खड़ा क़ातिल बड़ा हैरान मेरा
"फकीरा" ये कमाल उसका है सारा
न ग़ज़लें मेरी न दीवान मेरा-
इक तरफ माँ बाप हैं और इक तरफ तुम, बीच "मैं"
मेरी सोचो मुझको रस्सी पे बराबर चलना है-
आज फिर उससे वो बात हो न सकी
मेरी ख़ुद से मुलाकात हो न सकी
इश्क़ सारे तजर्बों से बढ़कर रहा
इससे ऊपर मेरी ज़ात हो न सकी
की तरक्की बड़ी आदमी ने मगर
आप जैसी करामात हो न सकी
बाज़ियाँ बादशाहत लगाती रही
तेरे बन्दे की शय मात हो न सकी
आप के ज़िक्र बिन जो ग़ज़ल कोई हो
ये फकीरा की औकात हो न सकी-
क्या बताएं किस कदर ख़ुद को संभाला साईंयां
कोयले की खान से हीरा निकाला साईंयां
ये तजर्बा है मेरा मैं और बेहतर हो गया
मुश्किलों में आपने जब जब भी डाला साईंयां
चित गिरे या पट गिरे आख़िर है मर्ज़ी आपकी
कर्म मेरा है सो बस सिक्का उछाला साईंयां
आप सब में हो वो बाहर ढूँढते हैं और क्या
अक्ल पे सबकी पड़ा ये कैसा ताला साईंयां
तारीफें करते नहीं थकता फकीरा आपकी
है सिखाने का भी क्या अंदाज़ आला साईंयां-
जिसे शायर यहां सब दाद कहते हैं,
तेरे बन्दे तेरी *इम्दाद कहते हैं.
*मदद, help
अरे ऐसे जो ख़ुद से इश्क़ नइं करते,
इन्हीं को इश्क़ में बर्बाद कहते हैं.
बना जब पेड़ पौधे को तजर्बा हुआ,
बड़ों के डाँटने को खाद कहते हैं.
हमें कुछ सीखने की भूख ऐसी है,
हम अपने ग़म को भी उस्ताद कहते हैं.
क़फ़स है जिस्म रूह से पूछकर देखो,
परिंदे ख़ुद को क्यूँ आज़ाद कहते हैं
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