चाहत अब भी है उतनी ही तुझमें भी मुझमें भी
पर वो कशिश दिखती ही नहीं
सुलझाने की चाह में उलझे रिश्ते सिरा कोई तो मिलता कहीं
लड़ लिया किस्मत से बहुत शिद्दत से मगर पार पड़ी नहीं
क्या ही अब प्रयास करूँ विचार आता है यही
मान लूँ की मैं ग़लत हूँ…जब के मैं हूँ ही नहीं?
तुम्हारे हर सही में सही कहा है, ग़लत में कभी हाँ भरी नहीं
बस रिश्ते को बचाने के लिए, दगा कर दूँ रिश्ते से ही?
सुधर जाएगा रिश्ता मान लूँ ,मन की वो हताशा शायद जाएगी नहीं
ताउम्र रहेगा अफ़सोस यही… क्या हो सकते थे… पर हुए नहीं!-
Banker by profession
Location: Jodhpur
You had many more
I just had four
But from four I turned to none
Cz u wished to be the only one
Times do change and so did you
Me being the one for you is very few
Handing you over to your clan
Seems the right thing to do.
Turing back to four won’t be right of me
Cz changing again proves one wrong to be
I know I wasn’t and so weren’t you
Let’s just say… it’s time to bid adieu.-
अंदर एक शोर था
जो अब थमने लगा है
मुखातिब हुए थे जब वो मुझसे
पिघल गया था मैं…!
उससे इश्क़ की आग में…
वो नशा….
अब धुलने लगा है…
ये दिल पत्थर सा फिर से
जमने लगा है!!!-
महसूस कर
महबूब मेरे
मेरी हद ऐ तिशनगी
के हर बार
कुरेदा है मैंने
ख़ुद को
इस रिश्ते को
हरा रखने के लिए-
I have realised…
That you'll not always be there
& I've to manage without you anyway
That you'll not be able to support me always
& I've to survive anyway
That you'll not want me around at times
& I will have to give u space anyway
That you'll be busy when I would have time
& I would've to distract myself anyway
That you won’t have a nerve to express how you feel
& I would've to presume it anyway
That you'll keep moving apart posing of being invested all out
& I would've to watch u go… ANYWAY!-
कब से तुझसे बात करना चाह रही हूँ
तुझसे मिल कर भी तुमसे मिल ना पा रही हूँ
नौबत ये कि तुमसे ख़ुद के लिए वक़्त माँगना पड़ रहा है
ऐ मेरे खुदा ये मैं कैसा उसे चाह रही हूँ
उसके पास तो वक़्त ही नहीं मुझसे गुफ़्त-अ-गू का
और मैं झली उस से इज़हार-ए-इश्क़ चाह रही हूँ
मेरे एहसासों से बेख़बर जब डूबा है वो अपने जहाँ में
तो कैसा ये इक तरफ़ा रिश्ता मैं निभा रही हूँ
तकल्लुफ़ को उसके लगता है मैं इश्क़ समझ बैठी
जिस से मैं सुबह से बात करना चाह रही हूँ!-
तेरे तर्ज़ पे मैं ये जनम नहीं निभा पाऊँगी
बर्ताव…
जैसे की कुछ हुआ ही नहीं…
मैं नहीं जाता पाऊँगी…
कहती हूँ छोड़ देने का…
इस बार चली ही जाऊँगी..
तेरी ख़ैरियत देखने को हर बार रुकती हूँ…
फिर लौट आती हूँ…
इस बार…
मैं वापिस नहीं आऊँगी!-
हर घड़ी तू जब बस चिंता में घुलता है
तो बता आख़िर क्यों मुझसे मिलता है
सुकून था ये साथ… ये रिश्ता पहले तो क्या
तेरा फ़र्ज़ उमर भर के लिए नहीं बनता है?
माना कि थोड़ा दर्द होगा उधर भी इधर भी
पर टहनी टूटने पर ही नया फूल खिलता है
मिलने से पहले जब अलग होने का वक़्त ताकने लगे
गणित बिठा के भला कहाँ रिश्ता चलता है
वक़्त चुराते थे हम ख़ुद ही ख़ुद से दूजे के लिए
अब करार मुलाक़ात ख़त्म होने पे मिलता है
जुदायी के दुख की जगह जब मिलने के दुख ने ले ली हो
ये रिश्ते की नहीं हमारी विफलता है-
एक वक़्त था…
तेरी मजबूरी समझ कर भी…
अपने दिल के हाथों मजबूर….
मैं ज़िद्द औ फ़िक्र किया करती थी…
एक वक़्त है की…
तेरे नक़ली बहानों पर भी…
तुझे हक़ से मुखातिब तो दूर…
मैं ज़िक्र तक नहीं करती…!-