मन का मंथन हो या
मस्तिष्क में उद्वेग सघन हो।
जीवन में उल्लास हो या
अंतस में बैराग हो।
छल छद्म से पीड़ित हो या
जग में सम्मान सकल हो।-
उंगली पकड़कर चलने से बहुत आगे तक है
उंगली पकड़ाकर चलने से बहुत पीछे तक है
जिंदगी का सफर
रास्तों, पड़ावों, मौसमों की गिनती से परे है
दोस्ती दुश्मनी मुसीबतों मुलाकातों से परे है
जिंदगी का सफर
प्रेम पर ठहरता नहीं, धोखे पर रुकता नहीं
कामयाबी की कीमत लेगा, नाकामी की लागत वसूलेगा
जिंदगी का सफर
सिखायेगा बहुत कुछ, भुलायेगा बहुत कुछ
सफर के बाद यहीं छूट जायेगा, सब कुछ-
यात्रा भी सतत रही, पड़ाव भी नियत रहे
तन-मन के समग्र भाव, निस्संदेह संयत रहे
पथिक के पग-पग पर, सपनों के महल ढहते रहे-
किसी की उपस्थिति से ही सुशोभित होता है
प्रकृति से सौंदर्य यूं भी कहीं निर्वासित होता है
समय से एकांत चुराकर, मेरे लिए एक कोना
मुझे दुनिया की दखलंदाजी से मुक्त करता है-
संभल से मुर्शिदाबाद तक।
अतिक्रमण का आकार
धन, धरा, शील, शरीर, प्राण तक ।
खोज की लागत
आगजनी, राहजनी, शोक, निर्वासन।
खोज का परिणाम
गौरवान्वित भाल, समृद्ध प्रशाल, जन-गण निहाल।-
इस अनवरत मानव धारा में
तुम कितने पानी में हो?
इस मेरा-तेरा, दल-बल-छल की कारा में
तुम कब से कैद में हो?
आगे निकलने की दौड़ और होड़ में
तुम कितने दमखम से हो?
प्रेम, प्रतीक्षा, कर्म, कर्तव्य की उहापोह में
तुम अपना क्या पा लेते हो?-
इसे अधूरा मत छोड़ देना।
हर पन्ना लाजवाब है
यूं ही पलट कर आगे मत बढ़ जाना।
ये तुम्हारे लिए है, तुम्हारी ही है
इसे किसी और से बदल मत लेना।
-