मैंने सजा रखी हैं अपने ख़्वाबों की चिता और बैठा एकटक निहार रहा हूँ शून्य को। मेरा भविष्य कर रहा है क्रंदन इस हार पर और मैं मुस्कुरा रहा हूँ अपने शोक पर। इस तरह मैंने जाना कि, विक्षिप्त होने से पहले मन की मृत्यु आवश्यक है।
मैं लिखता हूँ फिर जीता हूँ, लिख लिख कर जीता हूँ। थोड़ा रुकता हूँ, फिर चलता हूँ, मैं रुक रुक कर चलता हूँ। मैं कारवां ले कर निकला था रुकते रुकते, पीछे मैं रह गया मंज़िल के आस में अब मैं चलता हूँ। देखे हैं मैंने कुछ स्वप्न टूट न जाएँ वो, इस भय में मैं आँखें मूँद कर चलता हूँ चलते रहना ही तो जीवन है कल मैं भी मर जाऊँगा, इस डर से आज मैं चलता हूँ।