वो चलती रही बल-खाकर
नदी की तरह।
मैं खड़ा देखता रहा, उसे!
किनारों की तरह।-
हम रचनाकार नहीं बस कह देते हैं जग की वेदनाओं को, अपनी भाषा में।
बनते हैं माध्यम प... read more
विश्वास की लाज रखी है तूने मेरी
लेकिन यकीन भी तो तोड़ा है
बना दिए है भवन, अट्टालिकाएं लेकिन,
नीड़ गौरया का कहां छोड़ा है-
लाल हरे नीले पीले रंग,
मुझको नहीं सुहाते हैं।
इस होली पर इस सिंदूरी,
रंग से मुझको रंगना तुम।।-
खिली है धूप अरसे बाद, हुआ है साफ ये मौसम
सुगंधित है मलय बहती, थोड़ा करीब! आओ तुम
'शशि' सी हो हसीं तुम, क्यों क्रोधित हो के बैठी हो
चलो अब अश्रु पोंछो और थोड़ा मुस्कुराओ तुम-
लोग जमा थे, सभा जुटी थी
लेकिन तू ना दीख रही थी
मन में मेरे..... बेचैनी थी
आंखें तुझको ढूंढ़ रही थी-
मेरे चहुँ ओर तेरा चेहरा नजर आता है
आती है तेरी याद मगर तू नहीं आता है
हैं खिले फूल, गुलाबी! चमन में कितने
रंग है भरपूर, मगर! नूर नहीं आता है-
था माह कार्तिक वो! ......थी धूप गुनगुनी सी
खिड़की से दिन में मैंने, जब चांद को था देखा-
परी इंद्र की
उसकी आँखें नील गगन सी,
जिसमे हैं सागर के मोती.
मंद मंद मुस्कानें उसकी,
आसमान के तारों जैसी.
उसका हंसना लगता ऐसे,
ज्यों बिखरी हो प्रभा इंदु की.
और देख चेहरे को लगता,
है वह कोई परी इंद्र की.-
घन जैसे घने केश की छाव में
कांधे पर सर रख कर उसके,
कर में कर लेकर के उसका
खो करके स्वप्नों में उसके,
और पूछता अरि से अपने
अब तुमको कैसा लगता है......-