Ankur   (अंकुर)
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Joined 21 April 2020


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Joined 21 April 2020
22 JUN AT 13:30

तेरी याद है कि अब कभी, जाती ही नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

मैं घर छोड़कर आया था कि, बड़ा आदमी बनके आऊंगा।
तेरे सारे दुख दूर करके, खुशियां बटोर लाऊंगा।।
उस घर में तू नज़र कहीं, अब आती ही नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

एक समय था जब तेरी कॉल का, इंतज़ार रहता था।
तेरी आवाज़ सुनने को मन, बेकरार रहता था।।
उस फोन पे वो रिंग अब, आती ही नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

हर समय अब कहीं, खोया हुआ सा रहता हूं।
चेहरे पे मुस्कान लिए मैं, सारी पीड़ा सहता हूं।।
तेरे आँचल की वो छाँव कहीं, अब आती ही नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

जो लोग इस जीवन के, स्तंभ थे मेरे।
हर दुख हर सुख में जो, संग थे मेरे।।
मेरे पापा और भाई को तू, लाती क्यों नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

तेरी याद है कि अब कभी, जाती ही नहीं।
ए मां तू खुद कभी, आती क्यों नहीं।।

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11 MAY AT 15:48

जी रहा हूं तेरे बिन मगर जी नहीं लगता
बड़ा समझाया इसको फिर भी नहीं लगता।
हो सके तो लौट आ किसी रूप में ए मां
सारा जग सूना लगे कहीं दिल नहीं लगता।।

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19 APR AT 14:36

एक ज़माना था जब सड़कें व मकान कच्चे हुआ करते थे लेकिन उनके वाशिंदों के रिश्ते और इरादे मज़बूत थे।
एक आज का दौर है जहां सड़कें और मकान दोनों पक्के होने लगे हैं लेकिन लोगों के रिश्ते और इरादे कमजोर पड़ने लगें हैं।।
तब साधन तो कम थे मगर ज़रूरतें भी कम थीं, तो अपनों के लिए भरपूर समय हुआ करता था।
अब साधन तो बढ़ गए लेकिन ज़रूरतें भी बेहिसाब कर लीं, लिहाज़ा अपनों के लिए समय कम पड़ने लगा।।

इन महल मकानों से, वो झोपड़ी अच्छी थी,
अपनों के संग बिताई वो, हर घड़ी अच्छी थी।
आज हम ये कहां खो गए, अंधी कमाई में,
इस उथल-पुथल से दूर वो, सादा खोपड़ी अच्छी थी।।

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9 APR AT 14:47

नागवार हमें ये जिंदगानी रही।
इक आधी अधूरी कहानी रही।।
घर छूट गया नौकरी की होड़ में।
अपने बिछड़ गए सपनों की दौड़ में।।
नौकरी तो मिल गई,
मगर वो घर ना मिला।
अपनों के साथ बिता सकें
वो सफर ना मिला।।
मंजिल तो मिल गई मगर,
वो चाह ना रही।
सब राही बिछड़ गए,
साझी राह ना रही।।
इस भागदौड़ के खेल में,
सब अधपका ही पाए यहां।
गांव के हम बचे नहीं,
और शहर के बन पाए ना।

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8 FEB AT 20:27

बिखरी पड़ी हैं हसरतें, ख़्वाबों का घर कहां
मंज़िल तो अपने पास है, अपने मगर कहां

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7 NOV 2024 AT 20:53

पुकार

ए माँ मेरी पुकार सुन, कुछ कहना चाहता हूं
पापा भैया और तेरे संग, पुनः जीना चाहता हूं।
ये उजड़ा हुआ जीवन, फिर से बसा जाओ ना
चाहें जिस भी रूप में, मगर आ जाओ ना...

सपने टूटे, ख़्वाब बिखरे, चित्त छिन्न हो गया
तुम गए तो ये जीवन, प्रश्न-चिह्न हो गया।
हर लफ्ज़, हर एक चीज़, अब फ़िज़ूल लगती है
देखूं जिधर भी दूर तक, ख़ामोशी दिखती है।।
कि उमंग भरा वो जीवन, फिर से लौटा जाओ ना
चाहें जिस भी रूप में, मगर आ जाओ ना...

सबकुछ वीराना हो गया, कहीं मन नहीं लगता
गुज़ारा हुआ हर क्षण, अब जीवन नहीं लगता
कि जीने की आस, फिर से जगा जाओ ना
चाहें जिस भी रूप में, मगर आ जाओ ना...

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8 OCT 2024 AT 0:41

ख़्वाब भी देखे, ख़्वाहिशें भी पाली थीं
ना जाने मगर इनका, अब पता क्या है।
एक एक करके, सब अपने खो दिए
ख़ुदा जाने आख़िर, मेरी ख़ता क्या है।।

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25 SEP 2024 AT 21:49

छिद्र आसमान में कोई हो गया हो जैसे
संतुलन धरा का डोल गया हो जैसे।
लग रहा है ज़िंदगी एक मुर्दा बनकर रह गई
आत्मा का नाश मेरी हो गया हो जैसे।।
स्तंभ तीन ज़िंदगी के चूर हो गए
मां बाप और भाई सब दूर हो गए।
हारा नहीं हूं बेशक ए ज़िंदगी तुझसे
मेरे अपने और सपने चकनाचूर हो गए।।

शब्द तो बहुत हैं, उन्हें पिरोने का मन नहीं
दर्द भी बहुत हैं, मगर रोने का मन नहीं।।

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18 AUG 2024 AT 12:18

बचपन का ख़ुमार कभी जाता कहां है
जो बीत गया वक़्त फिर आता कहां है
यूं तो कट रही है ज़िंदगी मज़े में मगर
वो मज़ा अपने गांव सा कहीं आता कहां है

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11 JUL 2024 AT 9:11

खोकर तेरी यादों में खोज रहा हूं ज़िंदगी
मगर तेरे बग़ैर जीना माँ जीना नहीं लगता

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