आदमी !
आदमी मकान है,
आखिरी में खाली रह जाता है।
आदमी है पत्थर,
रास्ते का ठोकर खाते हुए घिस जाता है।
आदमी किनारा है,
ना हो किनारा तो नदी में लाशे बहती है।
आदमी रास्ता है,
जिसपे चल कर मंजिल घर पहुंचता है।
आदमी रो पड़े,
तो खून का कतरा आंखों से उतर जाता है।
आदमी रिस्क है,
इश्क ना हो तो जिंदा आदमी पत्थर बन जाता है।
आदमी आंखे मूंदलें,
तो आंखों के नीचे कालीख रात भर रोने से चढ़ जाता है।
चुप आदमी,
जैसे प्रीत बिना मकां जिसमे भूतो का डेरा होता है।
आदमी जिन्दा है,
तो जो चाहों उससे कहां जा सकता है।
आदमी जरूरत है,
जैसे बारिश में तन धुल जाता है वैसे चाहत में आदमी मर जाता है।
आदमी राजा है,
अपने छोटे-बड़े घर के जानवरों का पेट भरता है।
© - अंकु पाराशर-
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Philosopher 😍✅
NOTE 👉 अरे वाह आखीर आ ही गए अब आ ही गए हो तो जलवा भ... read more
आदमी !
आदमी मकान है,
आखिरी में खाली रह जाता है।
आदमी है पत्थर,
रास्ते का ठोकर खाते हुए घिस जाता है।
आदमी किनारा है,
ना हो तो नदी में लाशे बहती है।
आदमी रास्ता है,
जिसपे चल कर मंजिल घर पहुंचता है।
आदमी रो दे,
तो खून का कतरा आंखों से उतर जाता है।
आदमी रिस्क है,
इश्क ना हो तो जिंदा आदमी पत्थर बन जाता है।
आदमी आंखे मूंदलें,
तो आंखों के नीचे कालीख रात भर रोने से चढ़ जाता है।
चुप आदमी,
जैसे प्रीत बिना मका जिसमे भुतो का डेरा होता है।
आदमी जरूरत है,
जैसे बारिश में तन धुल जाता है वैसे चाहत में आदमी मर जाता है।
© - अंकु पाराशर-
जो सपना आप को दिखाया जा रहा है दरअसल वह सपना आप से पहले वह अमुक स्वप्नदर्शी अपने लिए देख चुका है जिसने सपनों का मायाजाल आपके लिए बुना है। और आप बस उस स्वप्नदर्शी के सपने को अपना मान कर पूरा करने के पागलपन में खुद से लड़ते और दल बदलते हुए अपने ही सपनों को पूरा करने के जद्दोजहद में उस अमुक स्वप्नदर्शी के राजा बनने का सपना पूरा करते हैं। बस यही राजनीति का फार्मूला है! और यह किसी भी तरह से गलत बात नहीं है क्योंकि आपका गलत किसी के लिए सही है और हो सकता है आपका सही किसी के लिए गलत हो, तो हर एक मेहनत का मेहनताना होता है। और वह गलत या सही नहीं देखता वह केवल नफा और नुकसान से मापा जाता है।
© - अंकु पाराशर-
अध्याय – 133
यदि हम सत्ता और भाषा के द्वंद्व को समझना चाहें तो वह ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति आईने में अपनी छवि देखे।छवि वास्तविक है,लेकिन वह स्वयं नहीं है।ठीक वैसे ही नाम,भाषा और विज्ञान उस सत्ता की परछाई मात्र हैं,वह सत्ता नहीं।
मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए उसे रूपों,सूत्रों और परिभाषाओं में बाँधा।परंतु यह बाँधना उसी प्रकार है जैसे समुद्र को मुट्ठी में कैद करना।अतः जल तो मुट्ठी से फिसल ही जाएगा,लेकिन हाथ पर नमी का अनुभव यह बताता रहेगा कि समुद्र का अस्तित्व है।भारतीय दर्शन ने इसी तथ्य को"अनुभूति"की संज्ञा दी।अनुभव के आगे परिभाषाएँ गौण हो जाती हैं। हवा को किसी भी नाम से पुकारो,उसका प्रवाह हमारी साँसों में जीवन भरता ही है।सूर्य को किसी भी सभ्यता में किसी भी नाम से पुकारा जाए,उसका प्रकाश अंधकार को मिटाता ही है।सत्य नाम का मोहताज नहीं है,बल्कि नाम सत्य का मोहताज है।यही कारण है कि ब्रह्मांड में यदि अनगिनत सभ्यताएँ मौजूद हैं,तो वे सब उसी सत्ता को अपने-अपने नामों और प्रतीकों से पुकार रही होंगी।परंतु सत्ता स्वयं अनाम,निराकार और अनादि-अनंत ही रहेगी।
अतः यह मान लेना उचित होगा कि ज्ञान का असली मूल्य उसमें नहीं है कि वह किस भाषा या सूत्र में व्यक्त किया गया है,बल्कि उसमें है कि वह हमें सत्ता की अनुभूति के कितने निकट ले जा पाता है।अनुभव ही अंतिम प्रमाण है,शेष सब साधन मात्र हैं।
© – अंकु पाराशर-
अध्याय - 132
अतः मेरे कहने का तात्पर्य उस व्यवस्था से है जो अनंत काल से सत्ता संचालन को सुचारू रूप से संचालित करवा तो रही है लेकिन उसका आस्तित्व कहीं विलीन है।
जो है ही नहीं उसे खोजना कितना तर्कहीन बात है, लेकिन क्या उसे महसूस किया जा सकता है,भारतीय दर्शन की मानें तो बिल्कुल यह किया जा सकता है और आम भाषा के रूप में अगर इस ज्ञान को जनमानस तक के समझ में आने वाली बात कहने के तहत बताया जाएं तो हम हर रोज ही उस हवा को महसूस कर पाते हैं जो अदृश्य होते हुए भी अपने अस्तित्व की अनुभूति करवा देता है।अब अगर आप वैज्ञानिक रूप से इस बात को नकारते हैं।तो मैं भी कह सकता हूं कि विज्ञान के उद्भव के बहुत पहले से ही हवा यहां मौजूद है।अतः हवा को होने के लिए विज्ञान की तब कोई जरूरत नहीं थी लेकिन विज्ञान ने हवा के होने के रहस्य को एक वैज्ञानिक पद्धति में संजो कर रसायनिक फार्मुले में सेट कर दिया।इससे हवा को कोई फर्क नहीं पड़ता है की उसे क्या नाम दिया जाएं या फिर वह क्यों ही बना। यहां जो भी ज्ञान हमने हवा के बारे में अर्जित किया है वह सारा वैज्ञानिक ज्ञान हमारा खुदका बनाया हुआ है। ना तो O2 ने खुद को ऑक्सीजन कहा और ना हि इसे बनाने वाले ने कोई नाम ही दिया!
अतः सुदूर अंतरिक्ष में अगर कोई विकसित सभ्यता मौजूद हो और ऑक्सीजन भी वहां मौजूद हो तो वे इसे किसी और नाम या फार्मुले से पहचानते होंगे।
© - अंकु पाराशर-
अध्याय - 131
सही मायनों में देखा जाएं तो दुनिया में मौजूद किसी भी विचार को अपनाने और त्यागने के अलावा कोई तीसरी स्वीकृति मानव के पास नहीं है। लेकिन क्या यह कहना सही है.?
नहीं यह कहना उतना सही भी नहीं है पर थोड़ा आसान जरूर है,इसे मैं ऐसे कस सकता हूं की दुनिया हां और ना के समिकरण से चलती है लेकिन आप अगर इसपर गौर करेंगे। तो शायद यह समझ पाएंगे की इस दो ०/१ वाले स्वीकृतियों के अलावा जो तीसरी स्वीकृति बनती है वह उस विषय को लेकर है जिसके बारे में हां या फिर ना कहां गया है। अतः आपके हां कहने भर से वह विषय या विचार अस्तित्व में आ जाता है,या फिर आपके ना कहने से उसका अस्तित्व खत्म हो जाता है। यह दोनो केवल मानव के देखने का नज़रिया भर है। जबकि वह विषय या विचार सुक्ष्म रूप में हमेशा से अस्तित्व में था। अगर वह नहीं होता तो शायद उसकी बात ही नहीं हो रही होती। अगर मैं कहूं की इस विशाल ब्रह्माण्ड में बहुत विशाल रहस्य छुपा हुआ है तो शायद आप मेरे सोच से इत्तफाक रखें। लेकिन अगर कोई उस रहस्य के बारे में पुछने लगें तो शायद मैं नही बता पाऊंगा।अब इसका मतलब यह तो नहीं हुआ की यह ब्रह्माण्ड ही झूठा साबित होगा!
मानव शरीर और मस्तिष्क की भी क्षमता है।यह ब्रह्माण्ड के सभी अनुभवों का भोग नहीं कर सकता,अतः मैं कह रहा हूं की हम सब कुछ कभी नहीं जान पाएंगे। जैसे की विशाल ब्रह्माण्ड को किसने बनाया.?
© - अंकु पाराशर
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अध्याय - 130
जब दोनों किनारे द्वैत है तो आखिर सच क्या है.?
अब सोचो अगर कोई तीसरा व्यक्ति जो नदी की समझ रखता है वह उन दोनों की बातें सुनकर मुस्कुराते हुए कहें की दोनो पार तो एक ही जैसे है और बाढ़ तो किसी भी पार आ सकता है। अतः यह आप दोनों की कोरी कल्पना या अनुमान भर है। बाढ़ में कहा नहीं जा सकता की कौन सा किनारा ज्यादा सुरक्षित होगा। दोनों किनारे की तरफ बाढ़ आने की संभावना ५०-५० है,क्योंकि दोने के बीच में उफनती नदी है। अतः उसके कहने का तात्पर्य यह है कि दोनों तट एक ही धरती के हिस्से हैं,जिसे नदी ने अलग किया है।अतः यहां नदी उस अद्वैत पुल का काम कर रही है जिसके अंदर दोनों किनारे उस तीसरे व्यक्ति के लिए एक हो जाते हैं।जबकि भौतिक रूप से दोनों पहले और दूसरे व्यक्तियों के लिए नदी के दोनों किनारे बाढ़ आने और ना आने के संभावनाओं की बीच फंसे हुए बिल्कुल द्वैत की तरह अस्तित्व में है। जबकि बिच में बहती नदी दोनों किनारों को जोड़ने वाली और विभक्त करनेवाली ईकाई है। अगर नदी नहीं होती तो दोनों किनारों का कोई अस्तित्व नहीं होता। अतः नदी का होना ही अद्वैत का रहस्य है और सृजनकर्ता का रहस्य भी इसी अद्वैत रूप को उजागर करता है!
धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत व्यक्ति उसे भगवान मानता है,जबकि इस भौतिक दुनिया के बनावट की ख़ाक छानता हुआ वैज्ञानिक उस रहस्य को समझने की कोशिश में उसे नकारता है!
© - अंकु पाराशर
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अध्याय - 129
मैं कहूंगा की भगवान के होने और ना होने की बहस भी द्वैत की तरह है और बहस का जो कारण है वह अद्वैत है।
इसे आप ऐसे समझ सकते हो,की एक आदमी जो धार्मिक विचारधारा का है और धर्म का ज्ञान रखता हो।उसको किसी वैज्ञानिक के द्वारा (जो विज्ञान के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को ही उचित मानता हो और भगवान की अवधारणा को विज्ञान के फार्मुले में फिट नहीं कर पाएं!) यह समझना की भगवान नहीं होते। कितना उचित और अनुचित होगा। शायद यह बात दोनों के बिच लड़ाई का कारण बने। लेकिन दोनों जिस बात पे बहस कर रहे हैं वह बात किसी नदी कि तरह अद्वैत है और नदी के दो किनारे भगवान के होने और ना होने के प्रतीक रूपी द्वैत है। अतः आप कल्पना कीजिए,एक उफनती नदी में बाढ़ आया हो और नदी पार करने की चाहत में किनारे खड़े दो लोग आपस में बातें कर रहे हैं तो पहला आदमी जो डरा हुआ है। नदी में उठते उफ़ान को देख कहता है,मुझे इस पार रहना है क्योंकि यहीं रहना सुरक्षित है। लेकिन दूसरे को लगता है की इस पार कभी भी बाढ़ आ सकता है अतः वह कहता है मुझे नदी के गहराई का पता लगाते हुए उस पार जाना है। क्योंकि वहां जाना ज्यादा सुरक्षित होंगा। दोनों की बातों से आपको क्या लगता है कौन सा किनारा ज्यादा सुरक्षित होगा.?
मैं कहूं की दोनों बाढ़ आने और ना आने के द्वैत में फसे हैं इस पार या उस पार के द्वैत में जबकि दोनों को सच नहीं पता!
© - अंकु पाराशर
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अध्याय - 128
सत्य अद्वैत है! अद्वैत का अनुभव तब होता है,जब हम दोनों विरोधों को एक साथ देख पाते हैं। जब हमें यह बोध होता है कि हाँ और ना दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
हाँ और ना जीवन के खेल के नियम हैं,पर इन नियमों के पीछे जो मैदान है वही सत्य है, वही अद्वैत है। वेदांत इसे ब्रह्म कहता है। भौतिकी इसे यूनिफाइड फील्ड कहती है। दोनों अलग भाषा में एक ही सत्य का बखान करते हैं।द्वैत अनुभव का साधन है जबकि अद्वैत अस्तित्व का स्वरूप और हमें जब यह समझ आ जाता है तो हम हाँ और ना के संघर्ष से मुक्त हो जाते हैं। तब जीवन में गहरा मौन उतरता है जिसमें सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। क्वांटम भौतिकी का सुपरपोज़िशन सिद्धांत कहता है कि कण एक साथ दो अवस्थाओं में हो सकता है। वह 0 भी है और 1 भी, तब तक जब तक उसे देखा न जाए। अतः विज्ञान हमें अद्वैत की झलक देता है, जहा दोनों विरोधी संभावनाएँ एक ही समय में अस्तित्व रखती हैं। जब तक हम जीवन को हाँ और ना के नजरिए से देखते हैं,हम द्वैत में फँसे रहते हैं पर जब हम दोनों को एक साथ स्वीकार करते हैं,तो हम अद्वैत के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। अद्वैत कोई बौद्धिक सिद्धांत नहीं अपितु यह एक अंतहीन अनुभव है।
जब इसका बोध होता है,तब हां/ना का अर्थ बदल जाता है। सुख आए या दुःख,दोनों एक ही चेतना में घटते हैं। जन्म हो या मृत्यु,दोनों एक ही अस्तित्व के खेल हैं।
© - अंकु पाराशर-
अध्याय - 127
तो ब्रह्मांड का हर पहलू विरोधी युग्मों से भरा हुआ है। जैसे रात्री और दिन,सुख और दुःख,जन्म और मृत्यु, पुरुष और स्त्री। अतः इस ना-हाँ के द्वैत के पार अद्वैत का रहस्य क्या है?
इसे जानने के लिए द्वैत को जानना जरूरी है की द्वैत का खेल जीवन के हर स्तर पर चलता है। यही द्वैत अनुभव को संभव बनाता है। यदि अंधकार न हो, तो प्रकाश का अर्थ क्या होगा? यदि दुःख न हो,तो सुख को कौन पहचानेगा? वहीं वेदांत कहता है कि यह द्वैत केवल अनुभव का साधन है,सत्य का स्वरूप नहीं। मानव जीवन एक निरंतर चयन की प्रक्रिया है। हर क्षण हम किसी न किसी प्रश्न का उत्तर दे रहे होते हैं जैसे - यह करूँ या न करूँ? या फिर यह सही है या गलत? हर उत्तर दो शब्दों के इर्द-गिर्द घूमता है। ना और हाँ। वैसे ही जैसे तकनीक का हर एल्गोरिद्म 0 और 1 के बीच चलता है, वैसे ही जीवन के सारे निर्णय ना और हाँ के द्वार से गुजरते हैं। 0 = ना, 1 = हाँ। पर क्या जीवन केवल इस द्वैत तक सीमित है? या इसके पार भी कुछ है? इसके पार है अद्वैत। जीसका का तात्पर्य है द्वैत के अभाव से। मतलब न=हाँ और न=ना (न स्वीकृति / न अस्वीकृति)
उपनिषद कहते हैं "एकमेव अद्वितीयम्" अर्थात जो एक है,जिसके अतिरिक्त दूसरा नहीं। जब हमें यह बोध होता है कि हाँ और ना दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं। जैसे समुद्र और लहर। लहर अलग दिखती है,पर समुद्र से अलग नहीं है।
© - अंकु पाराशर-