अंकिता जैन  
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Joined 4 April 2018


Joined 4 April 2018
26 FEB 2022 AT 18:28

जिन्हें बात-बेबात पर आँसू बहाना नहीं आता, ये दुनिया बहुत क्रूर है उनके लिए।

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16 FEB 2022 AT 7:36

दुनिया के किसी भी गीत से ज़्यादा सुंदर है बच्चे का पहली बार 'मम्मा' 'पापा' बोलने की कोशिश में 'मा मा मा' 'पा पा पा' गाना। सुबह-सुबह कानों में मिश्री घोलने के लिए उसका एक बार, बस एक बार 'मम्मा' बोल देना ❤️

#daytoremember #herfirstwords #सर्वाकेपहलेशब्द— % &

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8 JAN 2022 AT 21:41

छः दिन, गिनकर देखूँ तो कितना थोड़ा सा वक़्त... लेकिन आदतों के डलने और छूटने के लिए छः दिन भी बहुत होते हैं। वापस आकर जब उसने नन्ही हथेलियों से मुझे छू-छूकर, मेरे होने को स्वीकारा, मुझे पुनः पाया तो अहसास हुआ कि किसी को पा लेना और किसी से बिछड़ जाना बाहरी क्रियाओं में यूँ व्यक्त ना भी हो सके किंतु भीतर.... आह! काश कि भीतर उमड़ते मोह और विछोह के सम्पूर्ण सैलाब को व्यक्त करने के लिए भी कोई तो अभिव्यंजना होती ❤️

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23 NOV 2021 AT 9:41

जिनसे ज्ञान मिलता हो उनमें भूल से भी पैर लग जाने पर उन्हें सर-माथे से लगा लेने वाली हमारी पीढ़ी के लिए, साक्षरता और संस्कार में बस इतना ही अंतर है कि हम आज भी यात्राओं के दौरान जूते और किताबें साथ पैक नहीं कर पाते।

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18 NOV 2021 AT 18:43

तुमने समझा नहीं और वो कह न पायी,
बेतुके झगड़ों से फिर शुरू हुई लड़ाई,
जाने कब अहम् आया बीच बनकर कसाई,
पल में लुट गयी, ज़िन्दगी के रिश्तों की कमाई।

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19 OCT 2021 AT 21:40

अपनी तकलीफ़ें छोटी लगने लगती हैं जब उसे देखती हूँ जो अपने जिगर के टुकड़ों को उनके नसेड़ी बाप के हवाले छोड़कर उनके लिए दाना-पानी कमाने जाती है और वापस जाकर सुनती है, "अम्मा आज फिर बापू ने मारा"। औरतें इतनी कमज़ोर क्यों हो जाती हैं कि दुःख को नसीब मानकर ताउम्र उन्हें ढोती रहती हैं? क्यों उस देहरी को छोड़ नहीं देती जिसके भीतर उसके लिए न परवाह है न प्यार...?

#औरततेरीयहीकहानी

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31 JUL 2021 AT 10:15

धन के लिए जब नैतिकता दाव पर लगने लगे तो समझ लो यह समाज पतन की ओर है।

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20 JUN 2021 AT 22:09

मैंने देखा है दंभी पुरुष को पिता बनते ही कोमल हृदय का विनम्र मनुष्य बनते हुए। आसान नहीं होता कठोर स्वभाव को छोड़कर कोमलमना हो जाना। नवजीवन केवल स्त्री को नहीं पुरुष को भी बदल देता है। माताओं को कुछ मजबूत और पिताओं को कुछ नाज़ुक बना देता है।

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2 MAY 2021 AT 21:38

कभी-कभी हम "कैसे हो?" के जवाब में बहुत कुछ कहना चाहते हैं। सुनाना चाहते हैं दिल के हालात, निकालना चाहते हैं मन की भड़ास। रो लेना चाहते हैं किसी तसल्लीदार कंधे पर। पोंछ देना चाहते हैं अपने आँसू किसी के दामन से और सो जाना चाहते हैं उस गोदी में जिसमें समा जाएँ हमारे सारे शिकवे-गिले... लेकिन हम बस कहकर "मैं ठीक हूँ" बढ़ा लेते हैं बोझ पीड़ा की उस गठरी का जो हमें भीतर ही भीतर दबाती जाती है, डूब के ख़त्म हो जाने तक।

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15 APR 2021 AT 8:21

कुंभ में कमाई,
रैलियों में जीत पल रही है,

शमशानों की तपिश में
देश की रूह जल रही है,

ये वो दुनिया तो नहीं यारों
जिसके सपने हमने संजोए थे,

यहाँ तो हर क़दम ज़िन्दगी
बेबसी में हाथ मल रही है।

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