छः दिन, गिनकर देखूँ तो कितना थोड़ा सा वक़्त... लेकिन आदतों के डलने और छूटने के लिए छः दिन भी बहुत होते हैं। वापस आकर जब उसने नन्ही हथेलियों से मुझे छू-छूकर, मेरे होने को स्वीकारा, मुझे पुनः पाया तो अहसास हुआ कि किसी को पा लेना और किसी से बिछड़ जाना बाहरी क्रियाओं में यूँ व्यक्त ना भी हो सके किंतु भीतर.... आह! काश कि भीतर उमड़ते मोह और विछोह के सम्पूर्ण सैलाब को व्यक्त करने के लिए भी कोई तो अभिव्यंजना होती ❤️
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