'रंगमंच', प्रतीत इस अनुरागी प्रतिच्छवि से..
या कहें, कोई कला में छिपी प्रश्नावली
जहां अपेक्षाओं की पूर्णता, सुखे पत्तों की करवटों
पे लीन है,
या फिर कोई शहज़ादी, एक आधी-संपूर्ण बिस्तर पे झपकी
ले रही है ।
या है कोई ब्रह्माण्ड, जो इन्हीं सभी द्वन्द की भाषाओं से परे ।-
सूरज ने अपना प्रकाश कभी नहीं खोया, ना ही सांझ ने अपनी निर्मलता..
तुम लिखना खुद की जिंदगी के कागज़ को कुछ इस तरह,
जिसके शब्दकोश कुछ महत्त्वकांक्षा से भरे हो और
कुछ..ख्वाहिशों के ग़ज़ल से ।
और दिसंबर की पहाड़ों में वो कुल्हड़ की नग़मा सुनना ज़रूर,
वो संगीत जो तुम्हारे मन की परछाई को कमल के तालाब में पेश
करे !-
बेख़याली विवरण:
यदि 'ह' और 'द' एक दुसरे को
अनुसार एवं मात्राओं से ना जोड़ते,
तो शायद खयालों की परिभाषिकी ना होती
और जज्बातों के वर्णन इतना उम्दा ना होता
तभी तो गहरा संबंध रचा गया कवि और कविताओं के बीच ।
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While sketching the moonlight with the paintbrush of aspiration, Poetry and I have a deep colloquy about the magnificent glow, the happy sunset is carrying with a garland full of patience and breathing the journey to the never-ending ecstacy.
Isn't it peculiar; how the thought of planting Lilies on graveyards, offers a life to the poetry and the smashed words get elegant shapes.
Where an unspoken tale of silence dances in it's chosen music and the episodes of perspectives are getting their colours.
Then again I wonder,
Am I drawing the picture of my own enthusiasm?!
And there the Poetry giggles....-
मुद्दतें बाद आज तुझे अल्फाजों के धारा से भीगोने को मन किया
मस्तिष्क में वो बात थी की, तुझे और लिखूंगी नहीं, पर शायद
मेरी कलम, दिल के सामने अपने स्याहि से बिखरी जज़्बातों को
नहीं रोक पाई ।
ड़रती हुं, लिख देने से कहीं तुम शीर्षक पढ़ ना लो, के मेरे मन
की ध्वनी, जो तुम्हारी नज़रों से छिपाती आई हुं, वो कहीं इन
नज्मों के बहाने.. तुम्हारे सामने बाहें फैलाए ना बैठ जायें ।
परछाई में छिपा वो इश्क, जिसे अपने दर्द के दुपट्टे द्वारा पुरी
दुनिया से ढक रही हुं, कहीं तुम उसे पूरी तरह ना पढ़ लो ।
फिर भी आंखें मूंदे, अश्कों के बीच से जो धुंधला सा पृष्ठ दिख
रहा है, उसमें महज़ उन लफ़्ज़ों को सजा रही हूं ।
आज भी यादों के संदेश लिये आंखें और मुस्कुराहट दील तक
पहुंच जाती हैं,
पर दील उन्हें गले नहीं लगा पाती ।
क्योंकि अगर गले से लगा लिया तो.........-
मेरी कलम भी मुझसे सवाल कर रही थी, "बस इतना ही ?"
तो मैंने मुस्कुरा कर पुछा,
किसको लिखुं ?
तो कलम बोलती है, "जिंदगी को लिख, जिंदगी से लिख ।"
वक्त ने पूछा, "जरा वक्त तो बताना कितना हुआ ?"
तो मैंने भी बोल दिया, "ए वक्त, चल जी ले इस वक्त को.. क्यों
की आज तेरा ही वक्त है , और हो सके तो इस तारीख को अपनी
सीमा पर छाप लेना ।"
तो आज कलम की दिल की बात भी सुन लीजिए...
'के आज स्याहि से अंकित अल्फाजों पे कोई बंदिशें नहीं ...
ए स्याहि...आज खत्म मत होना....
आज प्रेम मेहमान बन कर आई है....
के आज मुझे जश्न मनानी है ।-
दो पत्र लिखे गए थें, प्रतिबिम्ब के तरफ़ से धूप और शाम को ।
एक पत्र में लिखा गया था, मुझे तुम से इश्क है, तो कुछ क्षण
और ठहर जाना..
दुसरे पत्र शिकायत भरी थी, जिसमें लिखा हुआ था, तु थोड़ी देर
बाद आ जाना..
अब प्रतिबिम्ब ने इश्क किस से फ़रमाया था, वो तो ये मुस्कुराती
प्रतिच्छवि ही जाने..
चलो अब बात करते हैं एक बहस की, जो छिड़ी चाय और
मुस्कान के बीच..
चाय बोली, में हर दफा उसके लबों को छूती हुं ..
तो मुस्कान बोली, में हर दफा उसके लबों पे रहती हुं...
और फिर उन्होंने भी होंठों पे प्यारी सी मुस्कान और चाय की
चुस्की लिए बोल दियें, "हाये...मोहब्बत ।"-
अटक गई यहां पे, थक सी गई...
आखिर कितने देर तक पुछती उसकी मुस्कराहट की कहानी और आशुओं की दास्तां,
त्याग की अलंकार से सुसज्जित वो नारी, जो पूरे चांद, तारें, ग्रह, नक्षत्रों को अपनी आंचल में समेटे, आसमान की लेखनी से खुद को लिखती है..
अब दुनिया की रिवाज़ तो देखो, किसी एक दिनांक तय करती है, किस दिन उस भोली-भाली जान को पलकों में बिठाया जाये ।
पर ममता की बागों में प्रस्फुटित वो गेंद, किसी दिनांक की मोहताज तो नहीं ।
तो चल उस तारीख की शोभा बढ़ाते हैं..
ये *१*और *०* अंक तो माँ की पदचिन्ह से निर्मल ही हो गई ।
और ये *मई*, 'म' से ही शुरू होती है ना, तो ममता की महिने से जानी गई ।-
कश्मकश जारी थी कोशिशों की,
पर कोई आये और ठहर जाये.. नसीबों में वो बात कहां ।
और फर्क जो रहा धागा और गांठ में , वो सांसों की लकीरों के गुंजाइश को एक ' अनसुनी ' नाम के पन्नों से लिपटाने की तोड़ में था ।
दास्तां थी ख्यालों भरी चाबी के गुच्छों की और एक सुई से वो जज़्बातों भरी श्वेटर बुनने की ।
पर वो ताला और जिंदगी की गर्माहट को ढूंढने में यहां से वहां भटकना लाजमी था ।
रेखाएं भी कमाल की होती हैं , धुंधलापन की सारी हदें जो पार कर देती हैं,
और तब धरती अपनी खामोशियों से तड़पती है और आसमान अपने चुप्पी से ।
बस युंही ' कहानी ख़त्म ' की पंक्तियां दिलो-दिमाग में शोर मचाती है ।-
***तेरे नाम का आखिरी पैगाम***
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युहीं कई चेहरे अच्छे लगते थें , जाने अंजाने में कितनों से बातें सुहानी हुई ।
फिर दस्तक तेरी बातों की हुई । उन छोटी छोटी मुलाकातें,बेसबरी सी सौगातें.. खट्टी-मीठी यादों भरी दुकान की मरम्मत में जो जुटे थें।
पसंद तो पहले से ही थे तुम, पर दिन-व-दिन और प्यारे लगने लगे थे । तुम्हारी मेहसुस को मेहसुस करना मानो जिम्मेदारी थी मेरी और वो जिम्मेदारी शायद मेरी जिंदगी की सबसे हसीन थी ।
आहिस्ता आहिस्ता प्यार में जो उठने लगी थी ।
फिर क्या...
मोहब्बत को अल्फाजों में सिमट कर तुम्हारी थाली में परोसा मेंने,
पर खुबसूरती से मना करना, तुम्हारी जिम्मेदारी थी और तुमने वो बखुबी निभाया ।
तबसे जज़्बात थम गई, पर मोहब्बत नहीं ।
अच्छा वो दुकान याद है ? खट्टी-मीठी यादों भरी दुकान...
वो अब बंद है , उसका एक लौता खरिददार जो नहीं है , और उन्हीं यादों को जैव में डाले कौई अंदर सेहेमी सी है ।
और अब ना वो ताला खुलेगा.. ना ही वो दिल ।
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