अच्छा लगता है हथेली पर तेरा नाम जानां
तकदीर वालो को मिलता है ये इनाम जानां
ठंडे तलवों को काश तेरे पैरों ने छुआ होता
ठिठुरती रातों को मयस्सर नहीं आराम जानां
जज़्ब हो जाएं तेरी सांसों की हरारत मुझमें
सुलगते रहने का हो कुछ तो इंतज़ाम जानां
अक्स तेरा ही मेरी हस्ती में उन्हें दिखता रहें
जो समझते हैं मेरे इश्क को नाकाम जानां
मेरे तकिए से कभी पूछना आकर तू भी
हिज़्र में गुज़री मेरी रातों का अंजाम जानां
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Ankita saxena #mypoetrmyvoice #
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हम तो बा नूर है,तेरे उन्स में बा दस्तूर है
तेरे दिल के गली-कूचों में आज भी मशहूर है
ये जो फासलें है बिना बात तेरे मेरे दरमियान
तेरे फैसले है खुद ही अपने आप से मजबूर हैं
बेहिसी तेरी नहीं, तेरे तो मसअले- मसाइल है
हमारा क्या हम तो अपनी ज़ात के नासूर है
मुहब्बत हमारा ईमान ,इश्क हमारा शऊर है
तूने कर लिया किनारा हम से ये भी अच्छा है
वरना हम अपनी वफाओं के लिए मशहूर है
कुछ दर्द दे जाएं तो, ख़याल से उतरता नहीं
'यार' अगर ज़हनी मर्ज है, तो भी मंज़ूर है-
ये क्या हैं, क्यों है
कि हर दिन तुमसे मुहब्बत
ज़रा सी और ज़्यादा हो जाती है
कि तुम रहते हो मेरे ज़ेहन में थोड़ा
और ज़्यादा
कि तुम्हारे ख्यालों से दिवानगी
ज़रा सी और ज़्यादा हो जाती है
कि दिल जब भी धड़कता है
गूंजता है तेरा नाम सीने में ,
मेरी आंखों को तेरे दीदार की ज़रूरत
ज़रा सी और ज़्यादा हो जाती है-
जो वो हमेशा से करता आ रहा है
वहीं बात मैं उसे बोल के
समझाती हूं ,______और वो नादान
कहता है ये तुम्हारी आदत है-
मैं यही एक हौसला नहीं करती
खुद को तुझ से रिहा नहीं करती
तू मेरा घर है मेरी रूह का जिस्म
इसलिए कोई गिला नहीं करती
जिस तरह तू नविश्ता है हथेली पे
यूं कोई नैमत मिला नहीं करती
सोहबतें चाहे फिर मिलें ना मिलें
फुरकतें कोई सिला नहीं करती
ज़िन्दगी कितनी भी महकती हो
किस्मतें अक्सर खिला नहीं करती-
भाप सा इश्क था
रिश्ता जब पकने लगा,
मरासिम धधकने लगा
तुमने कहा बस उतार दो
"भूत” था उतर गया
भाप बनकर उड़ गया
इश्क कब का छू हुआ .......... #Sakhi..-
ये बहुत पुरानी बात नहीं जब मैं रोशन था जिन्दा था वो नूर था मेरे माथे पर कि हर तारा शर्मिंदा था। तू मेरा सब कुछ ले जा, बस मुझे वो पेशानी वापस दे मैं तेरे खत लौटा दूँगा, तू मेरी जवानी वापस दे। Manoj muntasir
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उन्हीं की याद में हर रात बसर होती है
मेरी तनहाई की सितारों को खबर होती है
चांद चुपके से चुरा लेता है मेरे मिसरे
इश्क में डूबी गज़ल चांदनी को नज़र होती है
हमसे होकर जो गुज़रती है हर तीजें पहर
वो आग कुरबत की मत पूछो कहर होती है
मेरे ख्वाबों को लगता है लग गये है पर
लम्स-ए-महबूब हो तो इनकी सहर होती है
वो पूछते हैं कि लिखते नहीं है हम कुछ भी
रंगीन मीटर में कैनवास पर बहर होती है
मेरे मुशरिक, मेरे मगरिब सब तुम्हीं तो हो
तुम्हारे ख्यालों से वुज़ू करके फ़जर होती है
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