अभी तक अयोध्या की बस देह थी
उसमें न उसकी आत्मा थी,न प्राण था,न ऊर्जा|
अयोध्या का बल,विश्वास,ऊर्जा और प्राण तो अब वापस आये हैं|
थी सिर्फ देह बिन आत्मा राम की
मूर्छित था शरीर जैसे बिन ऊर्जा प्राण की
अधूरी थी अयोध्या बिन श्री राम नाम के
प्रभु बल हैं प्रेम हैं विश्वास हैं अयोध्या धाम के
अयोध्या की देह में ऊर्जा का संचार हुआ
श्री राम लौट आये इस धाम का फिर कल्याण हुआ
अब ख़त्म हुआ वनवास मंगल बेला आई है
श्री राम चरण की रज से अयोध्या में रौनक छाई है-
इन पंक्तियों से मैंने इसलिये शुरू किया क... read more
चंद्रयान ने हिन्दुस्तान को पैगाम भेजा है
की चाँद ने इस मुल्क को सलाम भेजा है
चंद्रयान के चन्द्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक लैंडिंग की खुशी को शब्दों से बयां नहीं किया जा सकता है| लैंडिंग के वक़्त दिल की तेज़ धड़कनों और लैंडिंग के बाद बदन के खड़े रोयें और आँख के कोने से बह रही आंसू की बूँद ने ही भावनाओं को व्यक्त कर दिया |
जय हिन्द-
सह लूंगा कष्ट सारे चाहे वो वज्र के समान हों
चुभे कोई काँटा भी तेरे पाँव में मुझे स्वीकार नहीं-
गुरु द्रोण की रखके प्रतिमा लक्ष्य को साध्य बनाऊंगा
अर्जुन जैसी सुविधा बिन मैं एकलव्य बन जाऊँगा
बिछा रहे हो पथ पे कांटे लहू लूहान मैं हो जाऊं
इन काँटों के पथ पे चल के मैं इतिहास बनाऊंगा
दुनिया को बस चकाचौंध इस मंज़िल की ही दिखती है
मंज़िल तक के सफर को फिर मैं चकाचौंध कर जाऊंगा
जलते दीपक को आंधी ने फूँक मार के बुझा दिया
कह दो आंधी से फिर सूरज तप्ता मैं बन जाऊँगा
डुबो के नौका दरिया में इन लहरों ने हुंकार किया
तैर के लहरों से दरिया के पार उतर मैं जाऊँगा
बाधाओं ने रोकी राहें चुपचाप खड़ा क्यों रह जाऊं
चट्टान तोड़ नदियों की भाँति अपनी राह बनाऊंगा
कहती दुनिया मुझसे ये तुम हार कभी तो मानोगे
जब तक सांस चले जीवन की हार कभी न मानूंगा
बंजर ज़मीं की कोख में तुमने बीज वृक्ष का डाल दिया
अब गंगा मैं शिव की जटा से बनके भगीरथ लाऊंगा
कुछ हार गए कुछ टूट गए कुछ बीच सफर में छोड़ गए
पर देख मुसीबत की आँखों में मैं यूँ ही मुस्काऊंगा
कुरुक्षेत्र में रख न दे फिर से अर्जुन गांडीव कभी
धर्म की खातिर फिर से मैं कृष्ण की गीता गाऊंगा
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इस देश की मिट्टी में न जाने कैसा रसायन है की बदन पे लग जाये तो पूरा बदन सिहर उठता है और पूरे शरीर में एक नयी ऊर्जा का संचार हो जाता है |
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मंज़िल की खोज में रास्ते के मोड़ से पथिक कहीं भटक गया
अतीत में डूब कर भविष्य की सोच में वर्तमान कहीं खो गया-
बिन काँटों के पथ पे चल के इतिहास में अमर हुआ है कोई बिन उलझे धागों के जैसे, जीवन सरल हुआ है कोई
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लौट कर मेरी भी पलट के देखने की चाह न थी
पर कम्बख्त वहां भी लौटने के सिवा और कोई राह न थी
उड़ गए जो परिंदे अपने आशियाँ छोड़ कर
उन्हीं आशियाँ में अब उनके लिए पनाह न थी
छिपा लिया मैंने अपने जख्मों से रिसते खून को
समझ पाए न मेरे दर्द को वो इतनी भी बेपरवाह न थी-
"मैं" को अपने हार के , मैंने खुद को जीत लिया
मैंने खुद को जान लिया , जब "मैं"ने खुद को मार लिया-