एक सर्द रात, दो गर्म रुह
थोड़ा दूर, ज्यादा पास
शिथिल देह, तड़पता मन
रुकते हैं कभी
टाल-टाल कर मिलतें हैं कभी
महसूस एक-दूसरे को
करने के लिए
फिर भी नहीं मिलती
एक की गेसुओं में
दूसरे की उंगलियां।
शायद कहीं तो रूकना है उन्हें
जैसे एक सिर्फ पानी
और एक ठोस पात्र कोई
जहां एक खुद को
इकट्ठा कर दूसरे में रुक जाए
लेकिन नहीं
हवाएं भी टकराकर
देह से, पार हो जातीं हों जैसे
और दोनों पानियों सा
बहते रहते हैं एक-दूसरे में,
एक-दूसरे के पार,
क्षितिज तक।।
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