उम्र चौबीस, एक अनसुलझा सा दौर या फिर कह लूं इसे जिन्दगी।
पढ़ाई, नौकरी, समाज और खुद में जूझता हुआ एक इंशा।
एक असमंजस का दौर और कुछ अनछुए से पहलू,
धिरे-धिरे तमाम उलझने, बेचैनियां सब थमी हुई हैं।
सिर्फ़ इक रोज मैं खुद के नजरिये से नहीं जी सकता?
खुदके अनुरुप कुछ भी नहीं कर पाना माथे में उलझनो को प्रवेश देता है।
सबकुछ होकर भी, यह उलझने क्यों?
किसी के चले जाने से? या शायद खुद के चले जाने से?
कल की याद और कल की चिंता में चिता हुआ इंसान।
खुद से कई रंजिशें खुद में कई मलालें, जिसको ना तो मिटा पा रहा ना आगे बढ़ पा रहा।
कोई ना तो सही राह दिखाने वाला ना गलत सही की पहचान बताने वाला,
रो भी तो नहीं पाता, दिल पर एक बडा सा चट्टान लिए चला जा रहा हूं।
ये चट्टान जितना मेरे बाहर है, उससे कई गुणा ज्यादा मेरे भीतर।
इस चट्टान को निकालने की कोशिश भी की तो दिल में एक कतरा नहीं रहेगा खून का,
शायद इस चट्टान और मेरे जिंदगी का एक अटूट सा रिश्ता बन चुका है।
ये चट्टान ही है जिसने अभी तक शायद मुझे जिंदा रखा है।
स्वभाव चिड़चिड़ा सा हो गया है, खुद पर अब संतुलन नहीं रही, बेवजह गुस्सा, बेवजह सूनापन।
मेरे कुछ सवाल हैं मुझसे, जिसके जवाब नहीं हैं मेरे पास,
कोई है जो मेरे सवालों का जवाब दे सकता है?
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