मेरे दो चार ख्वाब हैं
जिन्हें मैं आसमान से दूर चाहता हूं
ज़िंदगी चाहें गुमनाम रहें
पर मौत मशूहर चाहता हूं-
अब तो सुकून चाहता हूं
फिर से खिलखिलाती हंसी
चेहरे पर चाहता हूं
हार जीत सुख दुख दर्द
सब सह लूंगा
मुझे मुकम्मल हमदर्द चाहता हूं
पैरों में पड़ी बेड़ियां
अब टूटने को मचल चुकी है
उम्मीद हीं सहीं कुछ
बादलों को हटाना होगा
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विपत्तियां उम्मीद सब राह रोकने लगे हैं
हर कहीं से ख्वाहिश है मरने लगी है
जो सपने देखे थे मिट्टी होने लगे हैं
जीते जी अब लाश होने लगे हैं
कैसे कहूं कि कोई उद्देश है मेरा
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सब छोड़ कर
चले जानें को दिल करता है
कोई से कोई उम्मीद न हो
किसी भी चीज़ से दिमाग़
बस दूर होना चाहता है
पता नहीं क्या क्या सिकुड़ रहा है अंदर
बस टूटने का पता नहीं चलता है
क्यों बढ़ जाती हैं ख़ुद से दूरियां
जहां को पास लाते लाते
सब चेहरे खुश होते देखते हैं
पर ख़ुद को और अकेले होते पता हूं
बस अब छोड़कर सब जाना चाहता हूं-
एक एक पल यूं गुज़र रहा है
जैसे सकड़ कीनारे लगा पेड़
पानी को तरसता हैं
यहां ख्वाब है इसके बावजूद
कहीं बहुत रातें गुज़रे चुकीं हैं
बिना नींद के
पलकें झुका ली और
जो हो रहा है उसे देखते रहते
हुए मेरे हाथों में उसके सिवा कुछ भी नहीं है
जहां मैंने हौसले पाए थे
जहां मैंने रास्ते चुने थे
जहां मैंने खुद को अंतिम
सांसों तक लड़ने का वादा किया था
कुछ ना ही सही पर चलने का एक ख्वाब लिए पागलपन लिए बस चल दिया था
मैं हार रहा हूं मेरा शरीर बुजदिल हो चुका है
मेरी मौत मेरे ख्वाबों की साथ लिख चुकी है
एक ख्वाहिश एक ख्वाब कुछ विचार सब शांत हो रहे हैं
जो मुझे कब्र के साथ मिट्टी होने का एहसास दिला रहे हैं
अब मैं जाऊं तो जिओ किस विचार के लिए
फिर से ख्वाब नहीं देखना चाहता
मैं जो हो रहा हूं उसे मैं होने दूंगा
मैं उस डूबती नाव को
हिम्मत नहीं दूंगा
मेरी मंजिल अब लाश पड़ी हैं
इसी जला दो मुर्दा फिर ना जगाने वाला हैं
@nkit mehra
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{ स्वतंत्रता }
एक शिशु के समान हैं
जिसे परिपक्व होने तक अनुशासन अवस्था से गुजरना
हीं पड़ता हैं
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zindgi tune mujhe कब्र se kam di hain jami
पांव felaon toh दीवार main सर लगता हैं-
पता नहीं मन की चंचलता कों कैसे लिखूं
विचारों की पराकाष्ठा कैसे कहूं
यह शब्दों से टकराहट कैसे हैं
किसी बंजर भूमि में घास जैसी है
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