हमें हमारे पुरखों से दो प्रकार की विरासत प्राप्त हुई हैं...
पहली, समृद्ध प्राकृतिक विरासत।
दूसरी, विकृत सामाजिक विरासत।
अब हम मनुष्यों को देखिए...
हम विकृत सामाजिक विरासत को प्रतिदिन पाल रहे हैं,
और
समृद्ध प्राकृतिक विरासत को हर पल नष्ट कर समाप्ति की कगार पर ले आए हैं।
वाह, रे! सुशिक्षित मानव!
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अवतरण दिवस...२०... read more
सुनो!
तुम्हारे माथे में,
वो छोटी काली बिंदी,
बहुत भाती है।
और, वो!
चूड़ियों की खन-खन,
मानो, कोई मधुर संगीत।
याद है न!
वो मैरून साड़ी,
जो कानपुर वाली
मौसी के बेटे की शादी में पहनी थी,
बहुत खिलती हो उसमें।
जब-जब तुम्हें ऐसे देखता हूँ,
पुनः-पुनः प्रेम में होता हूँ।
लेकिन जानती हो,
मेरा प्रेम और खुशी महत्त्वपूर्ण नहीं है,
मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है,
इन परम्परागत वस्त्रों को धारण करने में,
तुम्हारी आसानी और इच्छा।
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जिनके विचारों में जड़ता है,
वो विचारशील नहीं।
जो सिर्फ एक विचारधारा से चिपके हैं,
वो विवेकशील नहीं।
जिनमें विवेकशीलता है लेकिन उसका उपयोग वो सिर्फ निजी स्वार्थ सिद्धि के लिए करतें हैं,
वो मनुष्य नहीं।
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बैठ गए
दर्द की पाठशाला में हम सबसे आगे जाके बैठ गए,
सबने दीं आवाज़ें, हम दर्द का पहाड़ा उठा के बैठ गए।
वो गुज़रा कई मरतबा श़रीक होने को हममें,
उठते, तो कैसे, हम दर्द का मज़मा लगा के बैठ गए।
आए थें कुछ पुराने आश़िक ग़म हमारा साझा करने,
बातें चलीं प्रेम की तो दर्द का सारे तम्बू लगा के बैठ गए।
यूँ तो शहर भर को अपनी मोहब्बत पर यकता था,
लगी जो मय होठों से सब दर्द की महफिल सजा के बैठ गए।
वो जो मशरूफ थें अपनी मोहब्बत की अंगड़ाईयों में,
बीतें जो चार दिन दर्द की शहनाई उठा के बैठ गए।
हर मोहब्बत में दर्द और दर्द से ही मोहब्बत है,
ये महसूस कर हम मोहब्बत के और नज़दीक आकर बैठ गए।— % &-
ज़माने में हर शख़्स,
फौरन हासिल चाहता है।
मगर जो धैर्य से बढ़ता है,
वही काबिल बन पाता है।— % &-
मेरे प्रेम की उम्र भले ही दस वर्ष हो रही हो,
लेकिन मेरा प्रेमी मन आज भी उसी शैशवावस्था में है जो किसी भी विषम परिस्थिति में तुम्हारे साथ होने की कल्पना मात्र से मानो चारों धाम भ्रमण कर लेता है...
मैं पुनः तुमसे प्रेम में हूँ...-
दिन के साथी सब होते हैं,
रात हमारी खाली है।
फिर हमने भी तान के चादर,
अपने ऊपर डाली है।
शुभरात्रि-
तुम्हारे साथ होता हूँ,
तो लगता है हर पल सदियों तक रुक जाए।
तुम्हारी बात होती है,
तो लगता है ये बातें सागर सी भर जाएं।
तुम्हारे बिन मैं होऊँगा?
ये सोंचा भी नहीं जाता...
तुम्हें पाकर मैं खोऊँगा?
ये सोंचा भी नहीं जाता...
के पाना और खोना, चलन होगा ये दुनिया का,
मगर दुनिया से चलें हम, ये ख़ुदा भी नहीं चाहता।
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कभी-कभी चारों ओर लोगों से घिरे होने के बावजूद आप बेहद अकेला महसूस करते हो...
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बदलते परिवेश में बदला है बहुत कुछ...
जैसे महिलाएं अब गाड़ी चलाना सीख गई हैं,
पुरुष भी सीख गए हैं खाना बनाना।
महिलाओं और पुरुषों में है कड़ी प्रतिस्पर्धा हर क्षेत्र में,
जिससे दृष्टिगोचर हो रहा है एक परिपक्व समाज।
बस नहीं बदली है तो एक मानसिकता,
हाँ, वही! जाति-व्यवस्था...
जिसके लिए उत्तरदायी हैं दोनों,
पुरुष और महिला...-