आहिस्ता आहिस्ता भनक लगी उनकी बेवफाइयों की....
गुरूर कुछ हमारा भी बिखरा हुआ सा लगने लगा...
-Ankit kumar-
अपने जख्मों....
अपने सदमों....
से मैं कितना शर्मिंदा हूं
क्या कारण है....क्या है सबब
जो मैं आज भी अब भी जिंदा हूं।।
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कमबख्त ये घटाएं भी रोने जैसी हो गई हैं
कही इन घटाओं ने हमें देख तो नहीं लिया।।।-
तुम जाने दे रहे हो...
इसलिए चला भी जाऊंगा...
मैं वक्त की तरह हूं...
एक बार चला गया...
तो कभी वापस नहीं आऊंगा ।।-
तुम खुद को तो बखूबी समेट रहे हो....
लेकिन कोई है....
जो तुम्हारे हाथों से रेत की तरह फिसल कर बिखरा जा रहा है ।।
- अंकित कुमार-
जिस रिश्ते में विश्वास नहीं होता.....
वो रिश्ता.... रिश्ता कहलाने के लायक नहीं होता......-
कई दफा ऐसा होता है कि हम सब कुछ समझ कर भी समझना नहीं चाहते....
कई दफा हम देख कर भी अनदेखा कर जाते हैं....
कई दफा कुछ ऐसी जगह उम्मीद लगा बैठते हैं जहा उम्मीद की एक किरण तक नहीं होती....
आखिर ऐसा क्यों करते हैं हम ???
आखिर क्यों???
शायद इसलिए क्योंकि हम सब कभी कभी ये समझ बैठते हैं कि हम किसी के लिए बहुत जरूरी है...
लेकिन हम इतने जरूरी कभी होते नहीं हैं....
उफ़....
ये गलतफहमियां....-
दर्द बहुत है मेरे सीने में....
शायद इसीलिए....
मजा नहीं आ रहा जीने में।।-
Muddaton baad aaj socha tha....
Ki बयां karenge apne saare dard tumse....
Per tumne महज़ sunna tak गंवारा nahi kiya....
Shayad meri खामोशी ko tumne mera गुरूर samajh liya hai....-
किसी ने एक दफा पूछा था मुझसे,
की आखिर है क्या तेरी जिंदगी,
हमने भी हस कर कह दिया.....
लज्जत-ए-गम-