मैं एक रोज एक शहर लूटुगा
वो बंद होते खुलते सुबह की नींदों की तरह
बिन बुलाए आ बैठ जाने वाले,गांव के उन बूढ़ों की तरह
एक रोज एक शहर लूटुगा
ये चमकते शहर में खुश रहने की बहुत गरीबी है मुझ में
उन अंधेरे गांव में दिखने वाले चांद तारों के खातिर
एक रोज शहर लूटुगा
कोई कह सके तो, जरा सुने हम भी
उस बरगद पर 3 भूत रहते हैं ,उन कहानियों के खातिर
मैं एक रोज.....
चौराहों को चौक बना देने की जो सभ्यता है ना
फिर डमरु बजा कर बर्फ बेचने वालों के खातिर
मैं एक रोज....
सच कहूं तो बहुत रोशनी है मेरे शहर में
गांव के उन अनंतहीन अंधियारो खातिर
मैं एक रोज एक शहर लूटुगा।।
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