एक स्मित पर है समर्पित समर्चन की युग-ऋचाएं। हृदय में संरचित नर्तित प्रेम की मधुमय लताएं।। दीप्त भूषण वसन हृद्य हृद्य अभ्रू भंगिमाएं। करती हैं वटु को चलित वक्रित विनम्र कनीनिकाएं।। सुन्दरी कृष्णिम तरङ्गित केशराशि की छटाएं। हों विधाता के करों की रचनधर्मी तूलिकाएं।। बोल के स्रंसित रसों में घोल के अधरों की हाला। चाह है पीते रहें बस आप आजीवन पिलाएं।। हास हो यदि संग हों अथवा स्मृति संस्मारिकाएं। जीयें सदा पाणिग्रहित आकण्ठ लग अन्यत्र जाएं।। प्रेम की लौकिक प्रथा में हार ना ना मरण जीवन। हम परस्पर प्रेम दें यूँ निज देह भी ना भान पाएं।।