अंकित कृष्ण  
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Joined 7 May 2018


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Joined 7 May 2018

देह की कल्पना बगैर भोजन के कैसे संभव है।
हम ग्राही हैं भोजन के। विवशतावश प्रकृति के।
अथवा हमने विवश किया है स्व को।
यदि अभ्यास करें तो कदाचित,किंतु,
योगी,तपस्वी,साधु,सन्यासी ही ऐसा कर पाएंगे।
तुम कौन हो?तुमने ग्राह्य किया है सभी भौतिक वस्तुओं का
मोह का,माया का,इच्छाओं का।
तुमने वरण किया है।
कुछ चीज़ें वरण किये बिना मिल जाती हैं और तुम दुखी हो जाते हो।
तुम सूर्य से विटामिन डी लोगे तो उसकी ऊष्मा से कालापन बिना लिए मिलेगा।
सिक्के में दो पहलू होते हैं,तुम्हें सिर्फ हेड या टेल नहीं मिलेगा।
गाय से दूध लोगे तो गोबर भी मिलेगा।
जीवन में सुख लोगे तो दुख भी मिलेगा।

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पता है,जब कोई मेरे बारे में विपरीत बातें कहता है,
तब मैं प्लूटो के बारे में सोचता हूँ।
किसी के कहने से कोई अपने मन में मेरे लिए कैसी भी अवधारणा बना लें।
वह उसका मन होगा।वहाँ उसके विचार होंगे।वहाँ उसकी चिंताएं होंगी।
मैं तो प्लूटो को सोचता हूँ।
क्योंकि,प्लूटो जैसा पहले था वैसा आज भी है।
जो पहले करता आया वही आज भी करता है।
मेरे लिए अत्यधिक सोचना इस विषय पर कि
उसने मुझे यह कह दिया,वह कह दिया,क्या कह दिया से ज्यादा उत्तम होगा कि
मैं अपने पैर के नाखूनों के बारे में सोचूँ ताकि उससे मेरे मोज़ों में छेद ना हो जाये।
जीवन तर्क के लिए है,ना कि वितर्क के लिए।
तुम देखते हो,पढ़ते हो,सुनते हो और सोचते हो।सब करते हैं,मैं भी करता हूँ।
कुछ ज्यादा कुछ कम।देखना,पढ़ना,सुनना ठीक है किंतु,सोचने पर संयम रखना चाहिए।
सोचने से तुम अपने मन की दशा और दिशा बदलते हो,
सामने वाले की नहीं या जिसके विषय में सोच रहे।
मैं तो विचार शून्य चित्त पर ज़ोर देता हूँ।
किंतु,ऐसा अत्यंत कठिन है।
तुम सोचो किंतु,थोड़ा सोचो,तनिक,जितने में तुम खुश रहो।
तुम्हारा मन खुश रहे।तुम्हारे भीतर शांति रह सके।

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मेरी अफ़वाहों का ज़िक्र कभी ख़तम नहीं होता
पतझड़ के आने से परेशां कभी चमन नहीं होता
मेरी अदावत रही होगी कभी मगर मुझे याद नहीं
मैं आदमी अच्छा हूँ पर किसी को पसंद नहीं होता

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चमन के सुमन को।धरा को गगन को।
बड़ी बारीक देखा।बहुत बार समझा।
वही सांझ हर दिन।
वही रुत सुबह की।
वही गीत गाती,
सुर में चिरैया।
अरुण की छँटा हो या चंदा चकोरी।
गगन चूमते हैं,चमकती धरा है।
ना बदली हवा है।
ना पर्वत गले है।
तुम जो गए क्या,
गए सब तराने।
ना मिलते कभी गर,ना दिल ये सताता।
वही राह होती।वही होती मंजिल।
क्षितिज पर पहुँचकर,
क्षितिज को सजाते।
गुदड़ी का बिस्तर,
छत पर लगाते।
नयन भींच भीतर सपने बनाते।
सपनों की दुनिया में घर हम बसाते।

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शहर में धूप खिली थी किसी ने बताया ही नहीं
उम्मीदें बहोत थी मगर उम्मीदों ने जगाया ही नहीं
हमीं हमारे हर कदम सिपह-सालार बने रहे
गर कहीं जीते नहीं तो किसी ने हराया भी नहीं

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समय बीत रहा है।
बस बीत जाए।
समय बीतेगा।
ऊपर की दोनों
फिक्र भरी पंक्तियाँ
ताउम्र बनी रहती हैं
और तीसरी जज़्बाती है
जो ताउम्र उम्मीदों में
कैद रह जाती है।

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26 DEC 2024 AT 20:06

मरना कौन चाहता है?

न चाहते हुए फिर भी जीने के लिए मर ही रहे।

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22 NOV 2024 AT 17:20

तुम रोते नहीं।क्यों नहीं!थोड़ा सा रो लेते।

इससे तुम्हारा पाषाण जैसा हृदय द्रवित नहीं होगा।
और ना ही रीति की गाथाओं का वैभव समाप्त होगा।

कहीं किसी आड़ में बिफरकर रो लिया करो।

भीतर के अदृश्य रुदन से कहीं श्रेष्ठ बाहर का होगा।
और कहने को सुनने को फिर से जीवन बाकी होगा।

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21 NOV 2024 AT 21:05

मैंने कहीं पढ़ा था पुरुष भूल जाता है पर माफ नहीं करता
और स्त्री माफ कर देती है पर भूल नहीं पाती...

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18 NOV 2024 AT 17:56

दुख कभी ना खत्म होने वाला एक अध्याय है।

जिसे तुम पढ़ते रहोगे जब तक इस भौतिक संसार में हो।

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