न मनाओं जश्न अपनी कामयाबी पर
न मनाओं मातम अपनी नाकामी का
ये वक्त है जानिब बीत जायेगा-
What I write is just a reflection of what I ... read more
कभी सितारा था आज जुगनुओ की भीड़ मे शामिल हो सा गया हूँ
चंद पल के नूर मे मदहोश हो घोर अंधेरे मे कहीं खो सा गया
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नासाज़ सी मेरी ज़िंदगी मे एक सुरिला साज़ हो तुम
खवाबों को जो हक़ीकत बना दे वो हसीं अंदाज़ हो तुम
गुजर रहा था मुद्दत से ना जाने किन्हीं गुमनाम रास्तो से
इन गुमनाम रास्तों से बाहर एक खूबसूरत सफ़र का आगाज़ हो तुम-
निर्मल हैं तू दिल मे तेरे कोई फ़ेर नही
शीतल हैं तू मन मे तेरे कोई बैर नही
सादगी है तुझमें सरलता की तू मूरत है
मासूम है तू मासूमियत से भरी तेरी ये सूरत है
कभी मधुर हवा की रवानी तो कभी बहती गंगा का पानी है तू
ईश्वर की लिखी सबसे अद्भुत कहानी है तू
तू कभी माँ की ममता का सागर है
तू कभी प्रेम से भरा गागर है
यूँ तो है अनेको रूप तेरे
तू कभी मीरा की भक्ति है
तू कभी दूर्गा की शक्ति भी है
कभी बहते झरनों की वाणी तो कभी रुत सुहानी है तू
ईश्वर की लिखी सबसे अद्भुत कहानी है तू
कमज़ोर है तू यह दुनिया की बस ग़लफ़हमी है
तेरा शौर्य देख़कर तो शत्रु की टोली भी सहमी है
जब जब दमखम दिखलाना था तूने दिखलाया है
सदियों तक तेरे किस्से रहे ऐसा परचम लहराया है
कभी झांसी की रानी तो कभी देबी चौधरानी है तू
ईश्वर की लिखी सबसे अद्भुत कहानी है तू-
दिल मे वही शराफ़त चेहरे पर वही नूर था
बरसो बाद मिले पर मेरा यार वही बदस्तूर था-
मै तुझे ढुँढता रहा पर तू छुपी रही चाँदनी बन कहीं महताबों में
कोई हया तो जरूर रही होगी तुझे जो देनी पड़ी दस्तक अब मेरे ख़्वाबो में-
कतरा कतरा हयात का किसी अनजाने से ग़म मे बेज़ार है
जी रहा हूँ ज़िंदगी मगर बेमंज़िल सी मेरी रहगुज़ार है
दोष लगाऊँ तो लगाऊँ किसे
मैने तो खुद ही लगायें अपने जज़्बातों के मुफ़्त बाज़ार है
शायद मेरे मुकद्दर में नहीं है मंज़िल-ए-मक़सूद
शायद मेरी ज़ीस्त मे नहीं है सुकुन मौज़ूद
कैसे करूँ मै चाहत बहारों की
शायद मुझे मंज़ूर ही फ़सल-ए-ख़ारज़ार है
दोष लगाऊँ तो लगाऊँ किसे
मैने तो खुद ही लगायें अपने जज़्बातों के मुफ़्त बाज़ार है-
दिल की कलम से मोहब्बत का कलाम उसे लिख भेजा
शोखियों मे डूबा एक हसीं पयाम उसे लिख भेजा
तोड़कर सब ज़ंज़ीरे रस्म-ए-उल्फ़त की
दिल से दिल तक एक नया आयाम उसे लिख भेजा-
जड़े खुद की कमज़ोर थी वर्ना तूफ़ानो मे कहाँ दम था
अगर न होता छेद मेरी कश्ती में तो समंदर के उफ़ानो मे कहाँ दम था-
काश ये नज़ारा चौदहवी की रात सा तुमने देखा होता
करिश्मा ये भी क़ुदरत का तुमने देखा होता
मगर तुम डूबी रही न जाने किस अहसास-ए-मगरूर में
काश मेरी नज़रो से तुमने मोहब्बत को देखा होता
बुलबुलों से बाहर निकल तुमने खुला आसमाँ देखा होता
घनी घटाओं मे खिलता हसीं महताब तुमने देखा होता
ज़रा छोड़ देती अपने ख़्यालो की नादानियाँ तो
काश मेरी नज़रो से तुमने मोहब्बत को देखा होता
शबनम मे लिपटा कलियों का शबाब तुमने देखा होता
पसेपर्दा-ए-गुरूर तुमने तसव्वुर-ए-उन्स को देखा होता
खिल सकता गुलाब खिजा की पोपलों से अगर
मेरी नज़रो से तुमने मोहब्बत को देखा होता-