ये हार के भेष में तुझे जीत की ललकार है
और अंत में
एक हार और कुछ नहीं तेरी जीत पर शृंगार हैं-
इस तर्ज पर की हमे तुम्हारी जरूरत नहीं
किसी ने सोचा नहीं मकसद गलती जताने का होगा
और अंत में क्या रहेगा दरमियाँ सबके
मैं और तू ही बचा, मिलके 'हम' बनते थे जो कभी.-
आसान हो गया मुस्कुरा देना
जब याद रहता है कि लोग दिल का अच्छा कहा करते थे मुझे-
तू थी सामने तो हसरतें जीने की थी
तू है नहीं तब भी जी रहे हम, सनम!-
ना पा लेने में तुम हो, ना खो देने में तुम हो
बेहतर बनने के हर प्रयास में तुम हो-
जिंदगी जिसपे सवार वो कश्ती काग़ज़ की निकली तो क्या?
मझधार में जो गल गई, तब आरज़ू जीने की हो भी तो क्या??
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शर्तिया
मुबारक हो शहर की शान-ओ-शौकत तुम्हें
गाँव लौट आने की हिमाकत फिर नहीं होगी-
जो बेवक्त हम मुस्कुराने लगे है
तसव्वुर तुझे फ़िर चाहने लगे हैं-
परिणाम के इंतजार में
बन्धनों के सार में
आशाओं की दोड़ में
मैं विरक्ति के भाव मे
ढल रहीं है साख फिर
रश्क इश्क से चली
रूख मोड़ती हवाओ का
खेल कुछ विचित्र हैं
आश्रित शब्द काल चित्र
कशमकश का अंत फिर
काल चक्र में फसा
अनर्गल वही हूँ मैं
चेतना अधीर तब
स्वयं सिद्ध नि-रुग्ण हो
विहार में विचारते
यहि क्या अवसाद है-